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जैनदर्शन तात्पर्य यह कि जैनी तत्त्वव्यवस्थाको समझे बिना ही यह दूषण धर्म कोतिने जैनोंको दिया है । इस स्थितिको उनके टीकाकार आचार्य कर्णव गोमिने ताड़ लिया, अतएव वे वहीं शंका करके लिखते है कि "शंकाजब कि दिगम्बरोंका यह दर्शन नहीं है कि 'सर्व सर्वात्मक है या सद सर्वात्मक नहीं है तो आचार्यने क्यों उनके लिये यह दूषण दिया? समा. धान-सत्य है, यथादर्शन अर्थात् जैसा उनका दर्शन है उसके अनुसार ते 'अत्यन्तभेदाभेदौ च स्याताम्' यही दूषण आता है' प्रकृत दूषण नहीं।"
बात यह है कि सांख्यका प्रकृतिपरिणामवाद और उसको अपेक्षा जे भेदाभेद है उसे जैनोंपर लगाकर इन दार्शनिकोंने जैन दर्शनके साथ न्याय नहीं किया। सांख्य एक प्रकृतिको सत्ता मानता है । वही प्रकृति दहीरूप भी, बनती है और ऊँट रूप, अतः एक प्रकृतिरूपसे दही और ऊँटमें अभेदक प्रसंग देना उचित हो भी सके, पर जैन तत्त्वज्ञानका आधार बिलकुल जुदा है । वह वास्तव-बहुत्ववादी है और प्रत्येक परमाणुको स्वतंत्र द्रव्य मानता है। अनेक द्रव्योंमें सादृश्यमूलक एकत्व उपचरित है, आरोपित है और काल्पनिक है। रह जाती है एक द्रव्यकी बात; सो उसके एकत्वका लोप स्वर बौद्ध भी नहीं कर सकते। निर्वाणमें जिस बौद्धपक्षने चित्तसन्ततिका सर्वथ उच्छेद माना है उसने दर्शनशास्त्रके मौलिक आधारभूत नियमका ही लोर कर दिया है । चित्तमन्तति स्वयं अपनेमें 'परमार्थसत्' है । वह कभी में उच्छिन्न नहीं हो सकतो । बुद्ध स्वयं उच्छेदवादके उतने ही विरोधी थे, जितने कि उपनिषत्प्रतिपादित शाश्वतवादके । बौद्धदर्शनकी सबसे बड़ी और मोटी भूल यह है कि उसके एक पक्षने निर्वाण अवस्थामें चित्तसन्त१. "ननु दिगम्बराणां 'सर्व सर्वात्मकं, न सर्व सर्वात्मकम्' इति नैतद्दर्शनम् , तत्किमर्थ मिदमार्चायेंणोच्यते ? सत्यं, यथादर्शनं तु 'अत्यन्तमेदामेदौ च स्याताम्' इत्यादिन पूर्वमेव दूषितम् ।”
-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० ३३९