________________
५४८
जैनदर्शन होता है, अन्यथा सन्तानान्तरक्षणके साथ उपादानोपादेयभावको को रोक सकता है ? इसमें जो यह कहा जाता कि 'द्रव्यसे अभिन्न होने कारण पर्यायें एकरूप हो जायगी या द्रव्य भिन्न हो जायगा', सो जर द्रव्य स्वयं ही पर्यायरूपसे प्रतिक्षण परिवर्तित होता जाता है, तब वह पर्यायोंकी दृष्टिसे अनेक है और उन पर्यायोंमें जो स्वधाराबद्धता है उर रूपसे वे सब एकरूप ही है । सन्तानान्तरके प्रथम क्षणसे स्वसन्तानके प्रथम क्षणमें जो अन्तर है और जिसके कारण अन्तर है और जिसकी वजह स्वसन्तान और परसन्तान विभाग होता है वही ऊर्ध्वतासामान्य य द्रव्य है। "स्वभाव-परभावाभ्यां यस्माद् व्यावृत्तिभागिनः।' ( प्रमाणवा० ३।३६ ) इत्यादि श्लकोंमें जो सजातीय और विजातीय य स्वभाव और परभाव शब्दका प्रयोग किया गया है, यह 'स्व-पर' विभार कैसे होगा ? जो 'स्व' को रेखा है वही ऊर्ध्वतासामान्य है।।
दही और ऊंटमें अभेदकी बात तो निरी कल्पना है; क्योंकि दह और ऊंटमें कोई एक द्रव्य अनुयायो नहीं है, जिसके कारण उनमें एकत्वक प्रसंग उपस्थित हो। यह कहना कि 'जिस प्रकार अनुगत प्रत्ययके बलपर कुंडल, कटक आदिमें एक सुवर्णसामान्य माना जाता है उसी तरह ऊं और दहीमें भी एक द्रव्य मानना चाहिये' उचित नहीं है; क्योंकि वस्तुत द्रव्य तो पुद्गल अणु ही है । सुवर्ण आदि भी अनेक परमाणुओंकी चिरकाल तक एक-जैसी बनी रहनेवाली सदृश स्कन्ध-अवस्था ही है और उसीवे कारण उसके विकारोंमेंअन्वय प्रत्यय होता है। प्रत्येक आत्माका अपने हर्प, विषाद, सुख, दुःख आदि पर्याोंमें कालभेद होनेपर भी जो अन्वर है वह ऊर्ध्वतासामान्य है। एक पुद्गलाणुका अपनी कालक्रमसे होनेवाल अवस्थाओंमें जो अविच्छेद है वह भी ऊर्ध्वतासामान्य ही है, इसीके कारण उनमें अनुगत प्रत्यय होता है इनमें उस रूपसे एकत्व या अभेद कहने कोई आपत्ति नहीं; किन्तु दो स्वतन्त्र द्रव्योंमें सादृश्यमूलक ही एकत्वक आरोप होता है, वास्तविक नहीं। अतः जिन्हें हम मिट्टी या सुवर्ण द्रव्य