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________________ स्याद्वाद-मीमांसा वे बन्ध और मोक्षकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि कार्यकारणपरभ्परासे चले आये अविद्या, संस्कार आदि बन्ध हैं और इनके नाश हो जाने पर जो चित्तकी निर्मलता होती है उसे मुक्ति कहते हैं । इसमें जो चित्त अविद्यादिमलोंसे सास्रव हो रहा था उसीका निर्मल हो जाना, चित्तकी अनुस्यूतता और अनाद्यनन्तताका स्पष्ट निरूपण है, जो वस्तुको एक हो समय में उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक सिद्ध कर देता है । तत्त्वसंग्रहपंजिका ( पृ० १८४ ) में उद्धृत एक प्राचीन श्लोकमे तो " तदेव तैर्विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते " यह कहकर 'तदेव' पदसे चित्तको सान्वयता और बन्ध-मोक्षाधारताका अतिविशिद वर्णन कर दिया गया है । ५४५ 'किन्हीं चित्तोंमें ही विशिष्ट कार्यकारणभावका मानना और अन्य में नहीं, यह प्रतिनियत स्वभावव्यवस्था तत्त्वको भावाभावात्मक माने बिना बन नहीं सकती । यानी वे चित्त, जिनमें परस्पर उपादानोपादेयभाव होता है, परस्पर कुछ विशेषता अवश्य ही रखते है, जिसके कारण उन्हीं में ही प्रतिसन्धान, वास्यवासकभाव, कर्तृ-भोक्तृभाव आदि एकात्मगत व्यवस्थाएं जमतीं है, सन्तानान्तरचित्त के साथ नहीं । एकसन्तानगत चित्तोमं ही उपादानोपादेयभाव होता है, सन्तानान्तरचित्तों में नहीं । यह प्रतिनियत सन्तानव्यवस्था स्वयं सिद्ध करती है कि तत्त्व केवल उत्पाद-व्ययकी निरन्वय परम्परा नहीं है । यह ठीक है कि पूर्व और उत्तर पर्यायोंके उत्पाद - व्ययरूपसे बदलते रहने पर भी कोई ऐसा अविकारी कूटस्थ नित्य अंश नहीं है, जो सभी पर्यायोंमे सूतकी तरह अविकृत भावसे पिरोया जाता हो । पर वर्तमान अतीतको यावत् संस्कार-संपत्तिका मालिक बनकर ही तो भविष्यको अपना उत्तराधिकार देता है । यह जो अधिकारके ग्रहण और विसर्जनकी परम्परा अमुक - चित्तक्षणोंमें ही चलती हैं, सन्तानान्तर चित्तों में १. “ कार्यकारणभूताश्च तत्राविद्यादयो मताः । बन्धस्तद्विगमादिष्टो मुक्तिनिर्मलता धियः ॥ " - तत्वसं ० श्लो० ५४४ । ३५
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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