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________________ जैनदर्शन की आलोचनाके साथ-ही-साथ अनेकान्तका स्थापन, स्याद्वादका लक्षण, सुनय-दुर्नयको व्याख्या और अनेकान्तमे अनेकान्त लगानेको प्रक्रिया बताई। इनने बुद्धि और शब्दकी सत्यता और असत्यताका आधार मोक्षमार्गोपयोगिताकी जगह बाह्यार्थकी प्राप्ति और अप्राप्तिको बताया। 'स्वपरावभासक बुद्धि प्रमाण है' यह प्रमाणका लक्षण स्थिर किया', तथा अज्ञाननिवृत्ति, हान, उपादान और उपेक्षाको प्रमाणका फल बतायाँ । इनका समय २री, ३रो शताब्दी है। आ० सिद्धसेनने सन्मतितर्कसूत्रमे नय और अनेकान्तका गम्भीर विशद और मौलिक विवेचन तो किया हो है पर उनको विशेषता है न्यायके अवतार करने की । इनने प्रमाणके स्वपरावभासक लक्षणमें 'बाधवर्जित विशेषण देकर उसे विशेष समृद्ध किया, ज्ञानकी प्रमाणता और अप्रमाणता का आधार मोक्षमार्गोपयोगिताको जगह धर्मकीतिकी तरह ‘मेयविनिश्चय को रखा । यानी इन आचार्योके युगसे 'ज्ञान' दार्शनिक क्षेत्रमें अपनी प्रमाणता बाह्यार्थकी प्राप्ति या मेयविनिश्चयसे ही साबित कर सकता था। आ० सिद्धसेनने न्यायावतारमें प्रमाणके प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन भेद किये है। इस प्रमाणत्रित्ववादकी परम्परा आगे नहीं चली। इनने प्रत्यक्ष और अनुमान दोनोंके स्वार्थ और परार्थ भेद किये है । अनुमान और हेतुका लक्षण करके दृष्टान्त, दूषण आदि परार्थानुमानके समस्त परिकरका निरूपण किया है। पात्रकेसरी और श्रीदत्त ____ जब दिग्नागने हेतुका लक्षण 'त्रिलक्षण' स्थापित किया और हेतुके लक्षण तथा शास्त्रार्थकी पद्धति पर ही शास्त्रार्थ होने लगे तब पात्रस्वामी ( पात्रकेसरी )ने त्रिलक्षणकदर्शन और श्रीदत्तने जल्पनिर्णय ग्रन्थोंमे हेतुका १. आप्तमी० श्लो० ८७। ३. आप्तमी० श्लो० १०२। २. बृहत्स्वय० श्लो० ६३ । ४. न्यायावतार० श्लो०१ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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