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स्याद्वाद-मीमांसा
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असंकर स्थितिको प्रवहमान रखता है । जब वस्तुका स्वरूप ही इस तरह त्रयात्मक है तब उस प्रतीयमान स्वरूपमें विरोध कैसा ? हां, जिस दृष्टिसे उत्पाद और व्यय कहे जाते हैं, उसी दृष्टिसे यह ध्रौव्य कहा जाता तो अवश्य विरोध होता, पर उत्पाद और व्यय तो पर्यायकी दृष्टिसे हैं तथा ध्रौव्य उस द्रवणशील मौलिकत्वकी अपेक्षासे हैं, जो अनादिसे अनन्त तक अपनी पर्यायोंमें बहता रहता है। कोई भी दार्शनिक कैसे इस ठोस सत्यसे इनकार कर सकता है ? इसके बिना विचारका कोई आधार ही नहीं रह जाता।
बुद्धको शाश्वतवादसे यदि भय था, तो वे उच्छेदवाद भी तो नहीं चाहते थे। ये तत्त्वको न शाश्वत कहते थे और न उच्छिन्न । उनने उसके स्वरूपको दो 'न' से कहा, जब कि उसका विध्यात्मक रूप उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक ही बन सकता है। बुद्ध तो कहते हैं कि न तो वस्तु नित्य है और न सर्वथा उच्छिन्न, जब कि प्रज्ञाकर गुप्त यह विधान करते हैं कि या तो वस्तुको नित्य मानो या क्षणिक अर्थात् उच्छिन्न । क्षणिकका अर्थ उच्छिन्न मैंने जानबूझकर इसलिये किया है कि ऐसा क्षणिक, जिसके मौलिकत्व ओर असंकरताकी कोई गारंटी नहीं है, उच्छि
के सिवाय क्या हो सकता है ? वर्तमान क्षणमें अतीतके संस्कार और भविष्यको योग्यताका होना ही ध्रौव्यत्वकी व्याख्या है । अतीतका सद्भाव तो कोई भी नहीं मान सकता और न भविष्यतका ही। द्रव्यको कालिक भी इसी अर्थमें कहा जाता है कि वह अतीतसे प्रवाहमान होता हुआ वर्तमान तक आया है और आगेको मंजिलको तैयारी कर रहा है।
अर्चट कहते हैं कि जिस रूपसे उत्पाद और व्यय हैं उस रूपसे ध्रौव्य नहीं; सो ठीक है, किन्तु 'वे दोनों रूप एक धर्मी में नहीं रह सकते' यह कैसे ? जब सभी प्रमाण उस अनन्तधर्मात्मक वस्तुको साक्षी दे रहे है तब उसका अंगुली हिलाकर निषेध कैसे किया जा सकता है ?