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जैनदर्शन
अभेदकी दिमागी दौड़ में अवश्य शामिल नहीं हुआ और न वह किसी ऐसे सिद्धान्तके समन्वय करनेकी सलाह देता है, जिसमें वस्तुस्थितिको उपेक्षा की गई हो । सर राधाकृष्णन्को पूर्ण सत्यके रूपमें वह काल्पनिक अभेद य ब्रह्म इष्ट है, जिसमें चेतन, अचेतन, मूर्त, अमूर्त सभी काल्पनिक रीति से सम जाते हैं । वे स्याद्वादको समन्वय दृष्टिको अर्धसत्योंके पास लाकर पटकन समझते हैं, पर जब प्रत्येक वस्तु स्वरूपतः अनन्तधर्मात्मक है, तब उस् वास्तविक नतीजे पर पहुँचनेको अर्धसत्य कैसे कह सकते हैं ? हाँ, स्याद्वाद उस प्रमाणविरुद्ध काल्पनिक अभेदकी ओर वस्तुस्थितिमूलक दृष्टिसे नहीं जा सकता । वैसे परमसंग्रहनयकी दृष्टिसे एक चरम अभेदकी कल्पन जैनदर्शनकारोंने भी की है, जिसमें सद्र पसे सभी चेतन और अचेतन सम जाते हैं- "सर्वमेकं सदविशेषात् " 1 - सब एक हैं, सत् रूपसे चेतन अचेतन में कोई भेद नहीं है । पर यह एक कल्पना ही है, क्योंकि ऐसा कोई एक 'वस्तुसत्' नहीं है जो प्रत्येक मौलिक द्रव्यमें अनुगत रहता हो । अतः यदि सर राधकृष्णन्को चरम अभेदको कल्पना ही देखनी हो, तो वह परमसंग्रह नयमें देखी जा सकती है । पर वह सादृश्यमूलक अभेदोपचार हो होगा वस्तुस्थिति नहीं । या प्रत्येक द्रव्य अपनी गुण और पर्यायोंसे वास्तविक अभेद रखता है, पर ऐसे स्वनिष्ठ एकत्ववाले अनन्तानन्त द्रव्य लोक वस्तुसत् हैं । पूर्णसत्य तो वस्तुके यथार्थ अनेकान्तस्वरूपका दर्शन ही है न कि काल्पनिक अभेदका खयाल । बुद्धिगत अभेद हमारे आनन्दक विषय हो सकता है, पर इससे दो द्रव्योंकी एक सत्ता स्थापित नहीं हं सकती ।
कुछ इसी प्रकार के विचार प्रो० बलदेवजी उपाध्याय भी सर राधा कृष्णन्का अनुसरण कर 'भारतीय दर्शन' ( पृ० १७३ ) में प्रक करते है - "इसी कारण यह व्यवहार तथा परमार्थके बीचोंबीच तस्त्वविचारको कतिपय क्षणके लिये विस्रम्भ तथा विराम देनेवाले विश्रामगृहसे बढ़कर अधिक महत्त्व नहीं रखता ।” आप चाहते हैं कि