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स्याद्वाद-मीमांसा
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आज भी कुछ विद्वानोंके मस्तिष्कपर पड़ा हुआ है और वे उसी संस्कारवश 'स्यात्' का अर्थ 'शायद' करनेमें नहीं चूकते। जब यह स्पष्ट रूपसे अवधारण करके निश्चयात्मक रूपसे कहा जाता है कि 'घड़ा अपने स्वरूपसे 'स्यादस्ति' - है ही, घड़ा स्वभिन्न पररूपसे स्यान्नास्ति'- नहीं ही हैं', तब शायद या संशयकी गुञ्जाइश कहाँ है ? 'स्यात्' शब्द तो श्रोताको यह सूचना देता है कि जिस 'अस्ति' धर्मका प्रतिपादन हो रहा है वह धर्म सापेक्ष स्थितितिवाला है, अमुक स्वचतुष्टयकी अपेक्षासे उसका सद्भाव है । 'स्यात्' शब्द यह बताता है कि वस्तुमें अस्तिसे भिन्न अन्य धर्म भी सत्ता रखते हैं । जब कि संशय और शायदमें एक भी धर्म निश्चत नहीं होता । अनेकान्त - सिद्धान्तमें अनेक ही धर्म निश्चित है और उनके दृष्टिकोण भी निर्धारित है । आश्चर्य है कि अपनेको तटस्थ माननेवाले विद्वान् आज भी उसी संशय और शायदकी परम्पराको चलाये जाते हैं ! रूढिवादका महात्म्य अगम्य है !
इसी संस्कारवश उपाध्यायजी 'स्यात्' के पर्यायवाचियों में 'शायद' शब्दको लिखकर ( पृ० १७३ ) जैन दर्शनको समीक्षा करते समय शंकराचार्यकी वकालत इन शब्दोंमें करते है - "यह निश्चित ही है कि इसी समन्वय दृष्टि से वह पदार्थोंके विभिन्न रूपोंका समीकरण करता जाता तो समग्र विश्व में अनुस्यूत परम तत्त्व तक अवश्य पहुँच जाता। इसी दृष्टिको ध्यान में रखकर शंकराचार्यने इस स्याद्वादका मार्मिक खण्डन अपने शारीरिक भाष्य ( २|२|३३ ) में प्रबल युक्तियोंके सहारे किया है" पर, उपाध्यायजी, जब श्राप 'स्यात्' का अर्थ निश्चितरूपसे 'संशय' नहीं मानते, तब शंकराचार्यके खण्डनका मार्मिकत्व क्या रह जाता है ?
जैनदर्शन स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार वस्तुस्थिति के आधार से समन्वय करता है । जो धर्म वस्तुमें विद्यमान हैं उन्हींका तो 'समन्वय हो सकता है । जैनदर्शनको आपने वास्तव - बहुत्ववादी लिखा है । अनेक स्वतन्त्र चेतन, अचेतन सत्-व्यवहारके लिये सद्रूपसे 'एक' भले ही कहे जायें, पर वह