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जैनदशन ही नयोंका स्थान भी अधिगमके उपायोंमें है। आगमिक कालमें ज्ञानकी सत्यता और असत्यता ( सम्यक्त्व और मिथ्यात्व ) बाह्य पदार्थोंको यथार्थ जानने या न जाननेके ऊपर निर्भर नहीं थी। किन्तु जो ज्ञान आत्मसंशोधन और अन्ततः मोक्षमार्गमें उपयोगी सिद्ध होते थे वे सच्चे और जो मोक्षमार्गोपयोगी नहीं थे वे झूठे कहे जाते थे । लौकक दृष्टिसे शत-प्रतिशत सच्चा भी ज्ञान यदि मोक्षमार्गोपयोगी नहीं है तो वह झूठा है और लौकिक दृष्टिसे मिथ्याज्ञान भी यदि मोक्षमार्गोपयोगी है तो वह सच्चा कहा जाता था। इस तरह सत्यता और असत्यताकी कसोटी बाह्य पदार्थोके अधीन न होकर मोक्षमार्गोपयोगितापर निर्भर थी। इसीलिये सम्यग्दृष्टिके सभी ज्ञान सच्चे और मिथ्यादृष्टिके सभी ज्ञान झूठे कहलाते थे। वैशेषिकसूत्रमें विद्या और अविद्या शब्दके प्रयोग बहुत कुछ इसी भूमिकापर हैं।
इन पांच ज्ञानोंका प्रत्यक्ष और परोक्षरूपमें विभाजन भी पूर्व युगमें एक भिन्न ही आधारसे था। वह आधार था आत्ममात्रसापेक्षत्व । अर्थात् जो ज्ञान आत्ममात्रसापेक्ष थे वे प्रत्यक्ष तथा जिनमें इन्द्रिय और मनकी सहायता अपेक्षित होती थी वे परोक्ष थे। लोकमें जिन इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको प्रयत्क्ष कहते हैं वे ज्ञान आगमिक परम्परामें परोक्ष थे। कुन्दकुन्द और उमास्वाति:
आ० उमास्वाति या उमास्वामी ( गृद्धपिच्छ ) का तत्त्वार्थसूत्र जैनधर्म का आदि संस्कृत सूत्रग्रन्थ है। इसमें जीव, अजीव आदि सात तत्त्वों का विस्तारसे विवेचन है । जैनदर्शनके सभी मुख्य मुद्दे इसमें सूत्रित हैं। इनके समयकी उत्तरावधि विक्रमको तीसरी शताब्दी है । इनके तत्त्वार्थसूत्र और आ० कुन्दकुन्दके प्रवचनसारमें ज्ञानका प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदोंमें विभाजन स्पष्ट होनेपर भी उनकी सत्यता और असत्यताका आधार तथा लौकिक प्रयत्क्षको परोक्ष कहनेकी परम्परा जैसीकी तैसी चालू थी।