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________________ स्याद्वाद-मीमांसा ५१७ अवक्तव्य है । चौथा उत्तर वस्तुके पूर्ण रूपको युगपत् न कह सकनेकी दृष्टिसे है । पर वही जगत शाश्वत कहा जाता है द्रव्यदृष्टिसे और अशाश्वत कहा जाता है पर्यायदृष्टिसे । इस तरह मूलतः चौथा, पहला और दूसरा ये तीन प्रश्न मौलिक है । तीसरा उभयरूपताका प्रश्न तो प्रथम और द्वितीयका संयोगरूप है । अब आप विचारें कि जब संजयने लोकके शाश्वत और अशाश्वत आदिके बारेमे स्पष्ट कहा है कि 'यदि मैं जानता होऊँ, तो बताऊँ' और बुद्धने कह दिया कि 'इनके चक्कर में न पड़ो, इनका जानना उपयोगी नही है, ये अव्याकृत है' तब महावीरने उन प्रश्नोंका वस्तुस्थिति के अनुसार यथार्थ उत्तर दिया और शिष्योंकी जिज्ञासाका समाधान कर उनको बौद्धिक दोनतासे त्राण दिया । इन प्रश्नोंका स्वरूप इस प्रकार है प्रश्न संजय १. क्या लोक मैं जानता होऊँ, तो बताऊँ ? शाश्वत है ? २. क्या लोक अशाश्वत है ? ( अनिश्चय, अज्ञान ) 11 बुद्ध इनका जानना अनुपयोगी है, ( अव्याकरणीय, अकथनीय ) 11 महावीर हाँ, लोक द्रव्यदृष्टिसेशाश्वत है । इसके किसी भी सत्का सर्वथा नाश नहीं हो सकता, न किसी असत्से नये सत्का उत्पाद ही संभव है । हाँ, लोक अपने प्रतिक्षणभावी परिणमनोंकी दृष्टिसे अशाश्वत है । कोई भी पर्याय दो क्षण ठहरनेवाली नहीं हे ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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