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________________ स्याद्वाद-मीमांसा ५१५ डालनेवाले नहीं थे, और न शिष्योंको सहज जिज्ञासाको अनुपयोगिताके भयप्रद चक्करमें डुबा देना चाहते थे। उनका विश्वास था कि संघके पंचमेल व्यक्ति जब तक वस्तुतत्त्वका ठीक निर्णय नहीं कर लेते, तब तक उनमें बौद्धिक दृढ़ता और मानसबल नहीं आ सकता। वे सदा अपने समानशील अन्य संघके भिक्षुओंके सामने अपनी बौद्धिक दीनताके कारण हतप्रभ रहेंगे और इसका असर उनके जीवन और आचारपर आये बिना नहीं रहेगा। वे अपने शिष्योंको पर्देबन्द पद्मिनियोंकी तरह जगतके स्वरूप-विचारको बाह्य हवासे अपरिचित नहीं रखना चाहते थे। किन्तु चाहते थे कि प्रत्येक मानव अपनी सहज जिज्ञासा और मनन शक्तिको वस्तुके यथार्थ स्वरूपके विचारको ओर लगावे । न उन्हें बुद्धकी तरह यह भय व्याप्त था कि यदि आत्माके सम्बन्धमें 'हाँ' कहते है तो शाश्वतवाद अर्थात् उपनिषद्वादियोंकी तरह लोग नित्यत्वकी ओर झुक जायेंगे और 'नहीं है' कहने से उच्छेदवाद अर्थात् चार्वाककी तरह नास्तिकताका प्रसंग उपस्थित होगा, अतः इस प्रश्नको अव्याकृत रखना ही श्रेष्ठ है । वे चाहते थे कि मौजूदा तर्को और संशयोंका समाधान वस्तुस्थितिके आधारसे होना ही चाहिये । अतः उन्होंने वस्तुस्वरूपका अनुभव कर बताया कि जगत्का प्रत्येक सत् अनन्त धर्मात्मक है और प्रतिक्षण परिणामी है। हमारा ज्ञानलव (दृष्टि) उमे एक-एक अंशसे जानकर भी अपने में पूर्णताका मिथ्याभिमान कर बैठता है। अतः हमें सावधानीसे वस्तुके विराट् अनेकान्तात्मक स्वरूपका विचार करना चाहिये । अनेकान्त दृष्टिसे तत्त्वका विचार करनेपर न तो शाश्वतवादका भय है और न उच्छेदवादका। पर्यायकी दृष्टिसे आत्मा उच्छिन्न होकर भी अपनी अनाद्यन्त धाराको दृष्टिसे अविच्छिन्न है, शाश्वत है। इसी दृष्टिसे हम लोकके शाश्वत-अशाश्वत आदि प्रश्नोंको भी देखें। (१) क्या लोक शाश्वत है ? हाँ, लोक शाश्वत है-द्रव्योंकी संख्याको दृष्टिसे। इसमें जितने सत् अनादिसे है, उनमें से एक भी सत्
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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