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जैनदर्शन द्वितीय भंग-घटका नास्तित्व घटभिन्न यावत् परपदार्थोके द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षासे है; क्योंकि घटमें तथा परपदार्थोमें भेदकी प्रतीति प्रमाणसिद्ध है।
तृतीय भंग-जब घड़ेके दोनों स्वरूप युगपत् विवक्षित होते हैं, तो कोई ऐसा शब्द नहीं है जो दोनोंको मुख्यभावसे एक साथ कह सके, अतः घट अवक्तव्य है। ___ आगेके चार भंग संयोगज है और वे इन तीन भंगोंकी क्रमिक विवक्षा पर सामूहिक दृष्टि रहनेपर बनते है । यथा___चतुर्थ भंग-आस्तिनास्ति उभयरूप है। प्रथम क्षणमें स्वचतुष्टय द्वितीयक्षणमें परचतुष्टयकी क्रमिक विवक्षा होनेपर और दोनोंपर सामूहिक दृष्टि रहनेपर घट उभयात्मक है ।
पञ्चम भंग-प्रथम क्षणमें स्वचतुष्टय, तथा द्वितीय क्षणमें युगपत् स्व-परचतुष्टय रूप अवक्तव्यकी क्रमिक विवक्षा और दोनों समयोंपर सामूहिक दृष्टि होनेपर घट स्यादस्तिअवक्तव्य है । ___छठवाँ भंग-स्यान्नास्ति अवक्तव्य है। प्रथम समय में परचतुष्टय, द्वितीय, समयमें अवक्तव्यकी क्रमिक विवक्षा होनेपर तथा दोनों समयोंपर सामूहिक दृष्टि होनेपर घड़ा स्यान्नास्ति अवक्तव्य है। ____सातवाँ भंग-स्यादस्तिनास्ति अवक्यव्य है । प्रथम समयमें स्वचतुष्टय द्वितीय समयमें परचतुष्टय तथा तृतीय समयमें युगपत् स्वपरचतुष्टयकी क्रमिक विवक्षा होनेपर और तीनों समयोंपर सामूहिक दृष्टि होनेपर घड़ा स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्यरूप सिद्ध होता है।
मैं यह बता चुका हूँ कि चौथेसे सातवें तकके भंगोंकी सृष्टि संयोगज है, और वह संभव धर्मोके अपुनरुक्त अस्तित्वको स्वीकृति देती है। 'स्यात्' शब्दके प्रयोगका नियम :
प्रत्येक भंगमें स्वधर्म मुख्य होता है और शेष धर्म गौण होते.