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जैनदर्शन अन्तर्गत तोसरे पेज्ज-दोषप्राभृतसे कसायप्राभृतकी रचना की है। इन सिद्धान्त-ग्रन्थोंमें जैनदर्शनके उक्त मूल मुद्दोंके सूक्ष्म बीज विखरे हुए हैं । स्थूल रूपसे इनका समय वीर निर्वाण संवत् ६१४ यानी विक्रमकी दूसरी शताब्दो ( वि० सं० १४४ ) और ईसाको प्रथम ( सन् ८७ ) शताब्दी सिद्ध होता है।
युग प्रधान आचार्य कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी ३री शताब्दीके बाद तो किसी भी तरह नहीं लाया जा सकता; क्योंकि मरकराके ताम्रपत्रमें कुन्दकुन्दान्वयके छह आचार्योंका उल्लेख है। यह ताम्रपत्र शकसंवत् ३८८ में लिखा गया था। उन छह आचार्योंका समय यदि १५० वर्ष भी मान लिया जाय तो शक संक्त् २३८ में कुन्दकुन्दान्वयके गुणनन्दि आचार्य मौजूद थे। कुन्दकुन्दान्वय प्रारम्भ होनेका समय स्थूल रूपसे यदि १५० वर्ष पूर्व मान लिया जाता है तो लगभग विक्रमकी पहली और दूसरी शताब्दी कुन्दकुन्दका समय निश्चित होता है। डॉक्टर उपाध्येने इनका समय विक्रमकी प्रथम शताब्दी ही अनुमान किया है। आचार्य कुन्दकुन्दके पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार और समयसार आदि ग्रन्थोंमें जैनदर्शनके उक्त चार मुद्दोंके न केवल बीज ही मिलते हैं, किन्तु उनका विस्तृत विवेचन और साङ्गोपाङ्ग व्याख्यान भी उपलब्ध होता है, जैसा कि इस ग्रन्थके उन-उन प्रकरणोंसे स्पष्ट होगा । सप्तभंगी, नय, निश्चय व्यवहार, पदार्थ, तत्त्व, अस्तिकाय आदि सभी विषयों पर आ० कुन्दकुन्दको सफल लेखनी चली है । अध्यात्मवादका अनूठा विवेचन तो इन्हींकी देन है।
श्वेताम्बर आगम ग्रन्थोंमें भी उक्त चार मुद्दोंके पर्याप्त बीज यत्र तत्र बिखरे हुए है । इसके लिए विशेषरूपसे भगवती, सूत्रकृतांग, प्रज्ञापना, राजप्रश्नीय, नन्दी, स्थानांग, समवायांग और अनुयोगद्वार द्रष्टव्य हैं। १.धवला प्र० भा०, प्र० पृष्ठ ३५ और जयधवला, प्रस्तावना पृष्ठ ६४ । २. देखो, प्रवचनासारको प्रस्तावना । ३. देखो, जैनदार्शनिक साहित्यका सिंहावलोकन, पृष्ठ ४ ।