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________________ सप्तभंगी ५०१ ( गा० १४ ) में सात भंगोंके नाम गिनाकर 'सप्तभंग' शब्दका भी प्रयोग किया है । इसमें अन्तर इतना ही है कि भगवतीसूत्रमें अवक्तव्य भंगको तीसरा स्थान दिया है जब कि कुन्दकुन्दने उसे पंचास्तिकायमें चौथे नंबर पर रखकर भी प्रवचनसार ( गा० २३ ) में इसे तीसरे नंबर पर ही रखा है। उत्तरकालीन दिगम्बर-श्वेताम्बर तर्क-ग्रन्थोंमें इस भंगका दोनों ही क्रमसे उल्लेख मिलता है। अवक्तव्य भंगका अर्थ: अवक्तव्य भंगके दो अर्थ होते हैं । एक तो शब्दकी असामर्थ्यके कारण वस्तुके अनन्तधर्मा स्वरूपको वचनागोचर अतएव अवक्तव्य कहना और दूसरा विवक्षित सप्तभंगीमें प्रथम और द्वितीय भंगोंके युगपत् कह सकनेकी सामर्थ्य न होनेके कारण अवक्तव्य कहना। पहले प्रकारमें वह एक व्यापक रूप है जो वस्तुके सामान्य पूर्ण रूपपर लागू होता है और दूसरा प्रकार विवक्षित दो धर्मोको युगपत् न कह सकनेकी दृष्टिसे होनेके कारण वह एक धर्मके रूपमें सामने आता है अर्थात् वस्तुका एक रूप अवक्तव्य भी है और एक रूप वक्तव्य भी, जो शेप धर्मोके द्वारा प्रतिपादित होता है। यहाँ तक कि 'अवक्तव्य' शब्दके द्वारा भी उसीका स्पर्श होता है। दो धर्मोको युगपत् न कह सकनेकी दृष्टिसे जो अवक्तव्य धर्म फलित होता है वह तत्तत् सप्तभंगियोंमें जुदा-जुदा ही है, यानी सत् और असत्को युगपत् न कह सकनेके कारण जो अवक्तव्य धर्म होगा वह एक और अनेकको युगपत् न कह सकनेके कारण फलित होनेवाले अवक्तव्य भंगसे जुदा होगा। अवक्तव्य और वक्तव्यको लेकर जो सप्तभंगी चलेगी उसमेंका अवक्तव्य भी वक्तव्य और अवक्तव्यको युगपत् न कह सकनेके कारण ही फलित होगा, वह भी एक धर्मरूप ही होगा। सप्तभंगोमें जो अवक्तव्य धर्म विवक्षित है वह दो धर्मोके युगपत् कहनेकी असामयंके १. देखो, अकलङ्कग्रन्थत्रय टि० पृ० १६९ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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