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स्याहाद
यदि वस्तु अभावात्मक ही मानी जाय, यानी सर्वथा शून्य हो; तो, बोध और वाक्यका भी अभाव होनेसे 'अभावात्मक तत्त्व' की स्वयं कैसे प्रतीति होगी ? तथा परको कैसे समझाया जायगा ? स्वप्रतिपत्तिका साधन है बोध तथा परप्रतिपत्तिका उपाय है वाक्य । इन दोनोंके अभावमे स्वपक्षका साधन और परपक्षका दूषण कैसे हो सकेगा? इस तरह विचार करनेसे लोकका प्रत्येक पदार्थ भावाभावात्मक प्रतीत होता है। सीधी बात है-कोई भी पदार्थ अपने निजरूपमे ही होगा, पररूपमें नहीं। उसका इस प्रकार स्वरूपमय होना ही पदार्थमात्रकी अनेकान्तात्मकताको सिद्ध कर देता है। यहाँ तक तो पदार्थकी सामान्य स्थितिका विचार हुआ। अब हम प्रत्येक द्रव्यको लेकर भी विचार करें तो हर द्रव्य सदसदात्मक ही अनुभवमे आता है ।
सदसदात्मक तत्त्व :
प्रत्येक द्रव्यका अपना असाधारण स्वरूप होता है, उसका निजी क्षेत्र, काल और भाव होता है, जिनमें उसकी सत्ता सीमित रहती है। सूक्ष्म विचार करनेपर क्षेत्र, काल और भाव अन्ततः द्रव्यको असाधारण स्थिति रूप ही फलित होते है । यह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका चतुष्टय स्वरूपचतुष्टय कहलाता है । प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूपचतुष्टयसे सत् होता है और पररूपचतुष्टयसे असत् । यदि स्वरूपचतुष्टयकी तरह पररूपचतुष्टयसे भी सत् मान लिया जाय; तो स्त्र और परमें कोई भेद नहीं रहकर सबको सर्वात्मकताका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि पररूपकी तरह स्वरूपसे भी असत् हो जाय; तो निःस्वरूप होनेसे अभावात्मकताका प्रसंग होता है। अतः लोककी प्रतीतिसिद्ध व्यवस्थाके लिये प्रत्येक पदार्थको स्वरूपसे सत् और पररूपसे अमत् मानना ही चाहिये । द्रव्य एक इकाई है, अखंड मौलिक है । पुद्गल द्रव्योंमें ही परमाणुओंके परस्पर संयोगसे छोटे-बड़े अनेक स्कन्ध तैयार होते हैं । ये स्कन्ध संयुक्तपर्याय है। अनेक द्रव्योंके संयोगसे