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________________ स्याद्वाद ४८३ वाचक शब्दोंका प्रयोग करना ही पड़ता है। तात्पर्य यह कि 'स्यात् अस्ति' वाक्यमें 'अस्ति' पद अस्तित्व धर्मका वाचक है और 'स्यात्' शब्द 'अनेकान्त' का। वह उस समय अस्तिसे भिन्न अन्य शेप धर्मोंका प्रतिनिधित्व करता है। जव 'स्यात्' अनेकान्तका द्योतन करता है तब 'अस्ति' आदि पदोंके प्रयोगसे जिन अस्तित्व आदि धर्मोका प्रतिपादन किया जा रहा है वह 'अनेकान्त रूप है' यह द्योतन 'स्यात्' शब्द करता है। यदि यह पद न हो, तो 'सर्वथा अस्तित्व' रूप एकान्तकी शंका हो जाती है । यद्यपि स्यात् और कथंचित्का अनेकात्मक अर्थ इन शब्दोंके प्रयोग न करनेपर भी कुशल वक्ता समझ लेता हैं, परन्तु वक्ताको यदि अनेकान्त वस्तुका दर्शन नहीं है, तो वह एकान्तमें भटक सकता है। अतः उसे वस्तुतत्त्वपर आनेके लिए आलोकस्तम्भके समान इस 'स्यात' ज्योतिकी नितान्त आवश्यकता है। स्याद्वाद विशिष्ट भाषापद्धति : स्याद्वाद सुनयका निरूपण करनेवाली विशिष्ट भाषापद्धति है । 'स्यात् शब्द यह निश्चितरूपसे बताता है कि 'वस्तु केवल इसी धर्मवाली ही नहीं है। उसमें इसके अतिरिक्त भी अनेक धर्म समान है। उसमें अविक्षित गुणधर्मोके अस्तित्वको रक्षा 'स्यात्' शब्द करता है । 'रूपवान् घट:' में 'स्यात्' शब्द 'रूपवान्' के साथ नहीं जुटता; क्योंकि रूपके अस्तित्वको सूचना तो 'रूपवान्' शब्द स्वयं ही दे रहा है, किन्तु अन्य अविवक्षित शेप धर्मोके साथ उसका अन्वय है। वह 'रूपवान्' को पूरे घड़ेपर अधिकार जमानेसे रोकता है और साफ कह देता है कि 'घड़ा बहुत बड़ा है, उसमें अनन्तधर्म हैं। रूप भी उसमेसे एक है।' यद्यपि रूपकी विवक्षा होनेसे अभी रूप हमारी दृष्टिमें मुख्य है और वही शब्दके द्वारा वाच्य बन रहा है, पर रसकी विवक्षा होनेपर वह गौणराशिमें शामिल हो जायगा और रस प्रधान बन जायगा। इस तरह समस्त शब्द गौण-मुख्यभावसे
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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