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जैनदर्शन
मानते है, उसमें पर्यायभेद स्वीकार नहीं करते । उनके मतमें कालकारकादिभेद होने पर भी अर्थ एकरूप बना रहता है । तब यह नय कहता है कि तुम्हारी मान्यता उचित नही है । एक ही देवदत्त कैसे विभिन्न लिंगक, भिन्नसंख्याक और भिन्नकालीन शब्दोका वाच्य हो सकेगा ? उसमे भिन्न शब्दोकी वाच्यभूत पर्यायें भिन्न-भिन्न स्वीकार करनी ही चाहिये, अन्यथा लिंगव्यभिचार साधनव्यभिचार और कालव्यभिचार आदि बने रहेगे । व्यभिचारका यहाँ अर्थ है शब्दभेद होने पर अर्थभेद नही मानना, यानी एक ही अर्थका विभिन्न शब्दोसे अनुचित सम्बन्ध | अनुचित इसलिये कि हर शब्दकी वाचकशक्ति जुदा-जुदा होती है; यदि पदार्थमे तदनुकूल वाच्यशक्ति नही मानी जाती है तो अनौचित्य तो स्पष्ट हो है, उनका मेल कैसे बैठ सकता है ?
काल स्वयं परिणमन करनेवाले वर्तनाशील पदार्थोके परिणमनमे साधारण निमित्त होता है । इसके भूत, भविष्यत और वर्तमान ये तीन भेद है । केवल द्रव्य, केवल शक्ति तथा अनपेक्ष द्रव्य और शक्तिको कारक नहीं कहते; किन्तु शक्तिविशिष्ट द्रव्यको कारक कहते है । लिंग चिह्नको कहते है । जो गर्भधारण करे वह स्त्री, जो पुत्रादिकी उत्पादक सामर्थ्य रखे वह पुरुष और जिसमे दोनो ही सामर्थ्य न हों वह नपुंसक कहलाता है । कालादिके ये लक्षण अनेकान्त अर्थमे ही बन सकते है । एक ही वस्तु विभिन्न सामग्रीके मिलने पर षट्कारकी रूपसे परिणति कर सकती है । कालादिके भेदसे एक ही द्रव्यकी नाना पर्यायें हो सकती है । सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य वस्तु मे ऐसे परिणमनकी सम्भावना नही है, क्योंकि सर्वथा नित्यमे उत्पाद और व्यय तथा सर्वथा क्षणिक स्थैर्य - प्रीव्य नहीं है । इस तरह कारकव्यवस्था न होनेसे विभिन्न कारकोंमे निष्पन्न षट्कारकी, स्त्रीलिंगादि लिंग और वचनभेद आदिको व्यवस्था एकान्तपक्ष मे सम्भव नहीं है ।
यह शब्दनय वैयाकरणोको शब्दशास्त्रको सिद्धिका दार्शनिक श्राधार