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जैनदर्शन स्थितिमूलक भेद करनेवाला व्यवहारनय' है। यह व्यवहारनय लोकप्रसिद्ध व्यवहारका अविरोधी होता है। लोकव्यवहारविरुद्व, विसंवादी और वस्तुस्थितिकी उपेक्षा करनेवाली भेदकल्पना व्यवहाराभास है। लोकव्यवहार अर्थ, शब्द और ज्ञान तीनोंसे चलता है। जीवव्यवहार जीव-अर्थ जीव-विषयक ज्ञान और जीव-शब्द तीनोंसे सधता है। 'वस्तु उत्पादव्यय-ध्रौव्यवाली है, द्रव्य गुण-पर्याय वाला है, जीव चैतन्यरूप है' इत्यादि भेदक-वाक्य प्रमाणाविरोधी हैं तथा लोकव्यवहारमें अविसंवादी होनेसे प्रमाण हैं । ये वस्तुगत अभेदका निराकरण न करनेके कारण तथा पूर्वापराविरोधी होनेसे सत्व्यवहारके विषय हैं । सौत्रान्तिकका जड़ या चेतन सभी पदार्थोंको सर्वथा क्षणिक निरंश और परमाणुरूप मानना, योगाचारका क्षणिक अविभागी विज्ञानाद्वैत मानना, माध्यमिकका निरावलम्बन ज्ञान या सर्वशून्यता स्वीकार करना प्रमाणविरोधी और लोकव्यवहारमें विसंवादक होनेसे व्यवहाराभास हैं ।
जो भेद वस्तुके अपने निजी मौलिक एकत्वको अपेक्षा रखता है, वह व्यवहार है और अभेदका सर्वथा निराकरण करनेवाला व्यवहाराभास है। दो स्वतन्त्र द्रव्योंमें वास्तविक भेद है, उनमें सादृश्यके कारण अभेद आरोपित होता है, जब कि एकद्रव्यके गुण और पर्यायोंमें वास्तविक अभेद है, उनमें भेद उस अखण्ड वस्तुका विश्लेषण कर समझनेके लिए कल्पित होता है । इस मूल वस्तुस्थितिको लांघकर भेदकल्पना या अभेदकल्पना तदाभास होती है, पारमार्थिक नहीं। विश्वके अनन्त द्रव्योंका अपना व्यक्तित्व मौलिक भेदपर ही टिका हुआ है। एक द्रव्यके गुणादिका भेद
. 'संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः।'
-सर्वार्थसि० ११३३ । 'कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागभाक् । प्रमाणबाधितोऽन्यस्तु तदाभासोऽवसीयताम् ।।'-त० श्लो० पृ० २७१ ।