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सामान्यावलोकन समाज शान्तिके लिये अपरिग्रहके रूपमें स्थिर आधार बनती है; यानी आचारमें अहिंसा, विचारमें अनेकान्त, वाणीमें स्याद्वाद और समाजमें अपरिग्रह ये वे चार महान् स्तम्भ हैं जिनपर जैनधर्मका सर्वोदयी भव्य प्रासाद खड़ा हुआ है । युग-युगमें तीर्थङ्करोंने इसी प्रासादका जीर्णोद्धार किया है और इसे युगानुरूपता देकर इसके समीचीन स्वरूपको स्थिर किया है । ___ जगतका प्रत्येक सत् प्रतिक्षण परिवर्तित होकर भी कभी समूल नष्ट नहीं होता। वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इस प्रकार त्रिलक्षण है। कोई भी पदार्थ चेतन हो या अचेतन, इस नियमका अपवाद नहीं है। यह 'त्रिलक्षण परिणामवाद' जैन-दर्शनके मण्डपकी आधारभूमि है। इस त्रिलक्षण परिणामवादको भूमिपर अनेकान्तदृष्टि और स्याहादपद्धतिके खम्भोंसे जैन-दर्शनका तोरण बाँधा गया है । विविध नय, सप्तभङ्गी, निक्षेप आदि इसको झिलमिलाती हुई झालरें हैं। ___ भगवान् महावीरने धर्मके क्षेत्रमें मानव मात्रको समान अधिकार दिये थे। जाति, कुल, शरीर, आकारके बंधन धर्माधिकारमें बाधक नहीं थे। धर्म आत्माके सद्गुणोंके विकासका नाम है। सद्गुणोंके विकास अर्थात् सदाचरण धारण करनेमें किसी प्रकारका बन्धन स्वीकार्य नहीं हो सकता। राजनीति व्यवहारके लिये कैसी भी चले, किन्तु धर्मको शीतल छाया प्रत्येकके लिये समान भावसे सुलभ हो, यही उनकी अहिंसा और समताका लक्ष्य था। इसी लक्ष्यनिष्ठाने धर्मके नामपर किये जानेवाले पशुयज्ञोंको निरर्थक ही नहीं, अनर्थक भी सिद्ध कर दिया था। अहिंसाका झरना एक बार हृदयसे जब झरता है तो वह मनुष्यों तक ही नहीं, प्राणिमात्रके संरक्षण, और पोषण तक जा पहुंचता है। अहिंसक सन्तको प्रवृत्ति तो इतनी स्वावलम्बिनी तथा निर्दोष हो जाती है कि उसमें प्राणिघातकी कम-से-कम सम्भावना रहती है । जैन श्रुतः
वर्तमान में जो श्रुत उपलब्ध हो रहा है वह इन्हीं महावीर भगवान्के