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जैनदर्शन करता है, उसी पर उसका जादू चलता है। यानी अनुराग होने पर आसक्ति और विराग होने पर विरक्तिका चक्र तभी चलेगा, जब पुरुष स्वयं अनुराग और विराग अवस्थाओंको धारण करे। कोई वेश्या स्वयं अनुरक्त होकर किसी पत्थरसे नहीं चिपटती। अतः जब तक पुरुषका मिथ्याज्ञान, अनुराग और विराग आदि परिणमनोंका वास्तविक आधार नहीं माना जाता, तब तक बन्ध और मोक्षकी प्रक्रिया बन ही नहीं सकती। जब उसके स्वरूपभूत चैतन्यका ही प्रकृतिसंसर्गसे विकारी परिणमन हो तभी वह मिथ्याज्ञानी होकर विपर्ययमलक बन्ध-दशाको पा सकता है और कैवल्यकी भावनासे संप्रज्ञात और असंप्रज्ञातरूप समाधिमें पहुँचकर जीवन्मुक्त और परममुक्त दशाको पहुँच सकता है। अतः पुरुषको परिणामी नित्य माने बिना न तो प्रतीतिसिद्ध लोकव्यवहारका ही निर्वाह हो सकता है और न पारमार्थिक लोक-परलोक या बन्ध-मोक्ष व्यवस्थाका ही सुसंगत रूप बन सकता है।
यह ठीक है कि पुरुषके प्रकृतिसंसर्गसे होनेवाले अनेक परिणमन स्थायी या निजस्वभाव नहीं कहे जा सकते, पर इसका यह अर्थ भी नहीं है कि केवल प्रकृतिके ही धर्म है; क्योंकि इन्द्रियादिके संयोगसे जो बुद्धि या अहंकार उत्पन्न होता है, आखिर है तो वह चेतनधर्म ही। चेतन ही अपने परिणामी स्वभावके कारण सामग्रीके अनुसार उन-उन पर्यायोंको धारण करता है। इसलिए इन संयोगजन्य धर्मोमें उपादानभूत पुरुष इनकी वैकारिक जबाबदारीसे कैसे बच सकता है ? यह ठीक है कि जब प्रकृतिसंसर्ग छूट जाता है और पुरुष मुक्त हो जाता है तब इन धर्मोकी उत्पत्ति नहीं होती, जब तक संसर्ग रहता है तभी तक उत्पत्ति होती है, इस तरह प्रकृतिसंसर्ग ही इनका हेतु ठहरता है, परन्तु यदि पुरुषमें विकार रूपसे परिणमनकी योग्यता और प्रवृत्ति न हो, तो प्रकृतिसंसर्ग बलात् तो उसमें विकार उत्पन्न नहीं कर सकता। अन्यथा मुक्त अवस्थामें भी विकार उत्पन्न होना चाहिये; क्योंकि व्यापक होनेसे मुक्त आत्माका