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ब्रह्मवादमीमांसा
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पदार्थोंको एक द्रव्यत्वकी दृष्टिसे एक कहनेपर भी उनका अपना पृथक् व्यक्तित्व समाप्त नहीं हो जाता । इसी तरह द्रव्य, गुण, पर्याय आदिको एक सत् की दृष्टिसे सन्मात्र कहनेपर भी उनके द्रव्य और द्रव्यांश रूपके अस्तित्वमें कोई बाघा नहीं आनी चाहिये । ये सब कल्पनाएँ सादृश्य-मूलक है, न कि एकत्व - मूलक । एकत्व-मूलक अभेद तो प्रत्येक द्रव्यका अपने गुण और पर्यायोंके साथ ही हो सकता है वह अपनी कालक्रमसे होनेवाली अनन्त पर्यायोंकी एक अविच्छिन्न धारा है, जो सजातीय और विजातीय द्रव्यान्तरोंसे असंक्रान्त रहकर अनादि अनन्त प्रवाहित है । इस तरह प्रत्येक द्रव्यका अद्वैत तात्त्विक और पारमार्थिक है, किन्तु अनन्त अखण्ड द्रव्योंका : सत्' इस सामान्यदृष्टिसे किया जानेवाला सादृश्यमूलक संगठन काल्पनिक और व्यावहारिक ही है, पारमार्थिक नहीं ।
अमुक भू-खण्डका नाम अमुक देश रखनेपर भी वह देश कोई द्रव्य नहीं बन जाता और न उसका मनुष्यके भावोंके अतिरिक्त कोई बाह्यमें पारमार्थिक स्थान ही है । 'सेना, वन' इत्यादि संग्रह-मूलक व्यवहार शब्दप्रयोगकी सहजताके लिए है; न कि इनके पारमार्थिक अस्तित्व साधनके लिए | अतः अद्वैतको कल्पनाका चरमविकास कहकर खुश होना स्वयं उसकी व्यवहारिक और प्रातिभासिक सत्ताको घोषित करना है । हम वैज्ञानिक प्रयोग करनेपर भी दो परमाणुओंको अनन्त कालके लिए अविभागी एकद्रव्य नहीं बना सकते, यानी एककी सत्ताका लोप विज्ञानकी भट्टी भी नहीं कर सकती । तात्पर्य यह है कि दिमागी कल्पनाओंको पदार्थव्यवस्थाका आधार नहीं बनाया जा सकता ।
यह ठीक है कि हम प्रतिभासके बिना पदार्थका अस्तित्व दूसरेको न समझा सकें और न स्वयं समझ सकें, परन्तु इतने मात्रसे उस पदार्थको 'प्रतिभासस्वरूप' ही तो नहीं कहा जा सकता ? अंधेरेमें यदि बिना