________________
४११
ब्रह्मवादमीमांसा क्योंकि इतरेतराभाव आदि अवस्तु होनेपर भी भिन्नाभिन्नादि विचारोंके विषय होते हैं, तथा गुड़ और मिश्रीके परस्पर मिठासका तारतम्य वस्तु होकर भी विचारका विषय नहीं हो पाता। अतः प्रत्यक्षसिद्ध भेदका लोप कर काल्पनिक अभेदके आधारसे परमार्थ ब्रह्मकी कल्पना करना व्यवहारविरुद्ध तो है ही, प्रमाण-विरुद्ध भी है।
हां, प्रत्येक द्रव्य अपनेमें अद्वैत है । वह अपनी गुण और पर्यायोंमें अनेक प्रकारसे भासमान होता है; किन्तु यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि वे गुण और पर्यायरूप भेद द्रव्यमें वास्तविक है, केवल प्रातिभासिक
और काल्पनिक नहीं है। द्रव्य स्वयं अपने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वभावके कारण उन-उन पर्यायोंके रूपसे परिणत होता है। अतः एक द्रव्यमें अद्वैत होकर भी भेदकी स्थिति उतनी ही सत्य है जितनी कि अभेदकी। पर्यायें भी द्रव्यकी तरह वस्तुसत् है; क्योंकि वे उसको पर्यायें है । यह ठीक है कि साधना करते समय योगीको ध्यान-कालमें ऐसी निर्विकल्प अवस्था प्राप्त हो सकती है, जिसमें जगत्के अनन्त भेद या स्वपर्यायगत भेद भी प्रतिभासित न होकर मात्र अद्वैत आत्माका साक्षात्कार हो, पर इतने मात्रसे जगत्की सत्ताका लोप नहीं किया जा सकता। __'जगत क्षणभंगुर है, संसार स्वप्न है, मिथ्या है, गंधर्वनगरकी तरह प्रतिभासमात्र है' इत्यादि भावनाएं है। इनसे चित्तको भावित करके उसकी प्रवृत्तिको जगतके विषयोंसे हटाकर आत्मलोन किया जाता है । भावनाओंसे तत्त्वको व्यवस्था नहीं होती। उसके लिए तो सुनिश्चित कार्यकारणभावकी पद्धति और तन्मूलक प्रयोग ही अपेक्षित होते हैं । जैनाचार्य भी अनित्य भावनामें संसारको मिथ्या और स्वप्नवत् असत्य कहते है। पर उसका प्रयोजन केवल वैराग्य और उपेक्षावृत्तिको जागृत करना है। अतः भावनाओंके बलसे तत्त्वज्ञानके योग्य चित्तकी भूमिका तैयार होनेपर भी तत्त्वव्यवस्थामें उसके उपयोग करनेका मिथ्या क्रम छोड़ ही देना चाहिये।