SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 431
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणाभासमीमांसा ३९३ विशद तो नहीं है, अतः उस अविशद ज्ञानको प्रत्यक्ष-कोटिमें शामिल नहीं किया जा सकता। वह प्रत्यक्षाभास ही है। परोक्षाभास : 'विशद ज्ञानको भी परोक्ष कहना परोक्षाभास है। जैसे मीमांसक करणज्ञानको अपने स्वरूपमें विशद होते हुए भी परोक्ष मानता है । यह कहा जा चुका है कि अप्रत्यक्षज्ञानके द्वारा पुरुपान्तरके ज्ञानकी तरह अर्थोपलब्धि नहीं की जा सकती। अतः ज्ञानमात्रको चाहे वह सम्यरज्ञान हो या मिथ्याज्ञान, स्वसंवेदी मानना ही चाहिए। जो भी ज्ञान उत्पन्न होता है, वह स्वप्रकाश करता हुआ ही उत्पन्न होता है। ऐसा नहीं है कि घटादिकी तरह ज्ञान अज्ञात रहकर ही उत्पन्न हो जाय । अतः मीमांसकका उसे परोक्ष कहना परोक्षाभास है । सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभास : बादलोंमें गंधर्वनगरका ज्ञान और दुःखमें सुखका ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभास है। मुख्य प्रत्यक्षाभास: ___इसी तरह अवधिज्ञानमें मिथ्यात्वके सम्पर्कसे विभंगावधिपना आता है। वह मुख्यप्रत्यक्षाभास कहा जायगा। मनःपर्यय और केवलज्ञान सम्यग्दृष्टिके ही होते है, अतः उनमे विपर्यासको किसी भी तरह सम्भावन नहीं है। स्मरणाभास: ___अतत्मे तत्का, या तत्में अतत्का स्मरण करना स्मरणाभास है। जैसे जिनदत्तमें 'वह देवदत्त' ऐसा स्मरण स्मरणाभास है । प्रत्यभिज्ञानाभास: सदृश पदार्थमें 'यह वही है' ऐसा ज्ञान तथा उसी पदार्थमें 'यह उस १. परीक्षामुख ६७ २. परीक्षामुख ६८ ३. परीक्षामुख ६।९।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy