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जैनदर्शन विषय होते है; सब सबके नहीं। जिनकी जब जैसी इन्द्रियादिसामग्री और योग्यता होती है वह धर्म उस ज्ञानका स्पष्ट या अस्पष्टरूपमें विषय बनता है।
यदि गौशब्दके द्वारा अगोनिवृत्ति मुख्यरूपसे कही जाती है; तो गौ शब्दके सुनते ही सबसे पहले 'अगौ' ऐसा ज्ञान श्रोताको होना चाहिये, पर यह देखा नहीं जाता। आप गोशब्दसे अश्वादिको निवृत्ति करते हैं; तो अश्वादिनिवृत्तिरूप कौन-सा पदार्थ शब्दका वाच्य होगा? असाधारण गोस्वलक्षण तो हो नहीं सकता; क्योंकि वह समस्त शब्द और विकल्पोंके अगोचर है । शावलेयादि व्यक्तिविशेषको कह नहीं सकते; क्योंकि यदि गोशब्द शावलेयादिका वाचक होता है तो वह सामान्यशब्द नहीं रह सकता। इसलिए समस्त सजातीय शावलेयादिव्यक्तियोंमें प्रत्येकमें जो सादृश्य रहता है, तन्निमित्तक ही गौबुद्धि होती है और वही सादृश्य सामान्य
__आपके मतसे जो विभिन्न सामान्यवाची गौ, अश्व आदि शब्द है वे सब मात्र निवृत्तिके वाचक होनेसे पर्यायवाची हो जायगे, क्योंकि वाच्यभूत अपोहके नीरूप (तुच्छ) होनेसे उसमें कोई भेद शेष नहीं रहता । एकत्व, नानात्व और संसृष्टत्व आदि धर्म वस्तुमें ही प्रतीत होते हैं । यदि अपोहमें भेद माना जाता है तो वह भी वस्तु ही हो जायगा।
अपोह्य ( जिनका अपोह किया जाता है ) नामक सम्बन्धियोंके भेदसे अपोहमें भेद डालना उचित नहीं है; क्योंकि ऐसी दशामें प्रमेय, अभिधेय, और ज्ञेय आदि शब्दोंकी प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि संसारमें अप्रमेय अनभिधेय और अज्ञेय आदिकी सत्ता ही नहीं है। यदि शावलेयादि गौव्यक्तियोंमें परस्पर सादृश्य न होनेपर भी उनमें एक
१. देखो, प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० ४३३ । २. प्रमेयकमलमातण्ड पृ० ४३४ ।