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शब्दार्थप्रमाणमीमांसा
३६७ भाव-अस्तित्व वस्तुका धर्म है, उसी तरह अभाव-परनास्तित्व भी वस्तु. काही धर्म है । उसे तुच्छ या निःस्वभाव कहकर उड़ाया नहीं जा सकता। सादृश्यका बोध और व्यवहार हम चाहे अगोनिवृत्ति आदि निषेधमुखसे करें या सास्नादिमत्त्व आदि समानधर्मरूप गोत्व आदिको देखकर करें, पर इससे उसकी परमार्थसत् वस्तुतामें कोई बाधा नहीं आती। जिस तरह प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका विषय सामान्यविशेषात्मक पदार्थ होता है, उसी तरह शब्दसंकेत भी सामान्यविशेषात्मक पदार्थमें ही किया जाता है। केवल सामान्यमें यदि संकेत ग्रहण किया जाय, तो उससे विशेषव्यक्तियों में प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। अनन्त विशेषव्यक्तियाँ तत्तत्रूपमें हम लोगोंके ज्ञानका जब विषय ही नहीं बन सकती, तब उनमें संकेत ग्रहणकी बात तो अत्यन्त असम्भव है। सदृश धर्मोकी अपेक्षा शब्दका अर्थमें संकेत ग्रहण किया जाता है। जिस शब्दव्यक्ति और अर्थव्यक्तिमें संकेत ग्रहण किया जाता है, भले ही वे व्यवहारकाल तक न जाँय, पर सत्सदृश दूसरे शब्दसे तत्सदृश दूसरे अर्थकी प्रतीति होनेमें क्या बाधा है ? एक घटशब्दका एक घटपदार्थमें संकेत ग्रहण करनेपर भी तत्सदृश यावत् घटोंमें तत्सदृश यावत् घटशब्दोंको प्रवृत्ति होती ही है। संकेत ग्रहण करनेके बाद शब्दार्थका स्मरण करके व्यवहार किया जाता है। जिस प्रकार प्रत्यक्ष-दुद्धि अतीत अर्थको जानकर भी प्रमाण है, उसी तरह स्मृति भी प्रमाण ही है, न केवल प्रमाण ही, किन्तु सविषयक भी है । जब अविसंवादप्रयुक्त प्रमाणता स्मृतिमें है तब शब्द सुनकर तद्वाच्य अर्थका स्मरण करके तथा अर्थको देखकर तद्वाचक शब्दका स्मरण करके व्यवहार अच्छी तरह चलाया जा सकता है।
एक सामान्य-विशेषात्मक अर्थको विषय करने पर भी इन्द्रियज्ञान स्पष्ट और शब्दज्ञान अस्पष्ट होता है। जैसे कि एक ही वृक्षको विषय करनेवाले दूरवर्ती और समीपवर्ती पुरुषोंके ज्ञान अस्पष्ट और स्पष्ट होते है । 'स्पष्टता और अस्पष्टता विषयभेदके कारण नहीं आती, किन्तु आव१. देखो, न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ५६५ ।