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जैनदशन तथा समाज-रचनाके मूलभूत अनुशासनके नियम आदि सभी कुछ सिखाते है। वे ही कुलके लिये उपयोगी मकान बनाना, गाँव बसाना आदि सभी व्यवस्थाएँ जमाते है, इसीलिये उन्हें कुलकर या मनु कहते है । अन्तिम कुलकर श्रीनाभिरायने जन्मके समय बच्चोंकी नाभिका नाल काटना सिखाया था, इसीलिये इनका नाम नाभिराय पड़ा था। इनकी युगलसहचरीका नाम मरुदेवी था। आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव
इनके ऋपभदेव नामक पुत्र हुए । वस्तुतः कर्मभूमिका प्रारम्भ इनके समयसे होता है । गाँव, नगर आदि इन्हींके कालमें बसे थे । इन्होंने अपनी पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरीको अक्षराभ्यासके लिये लिपि बनाई थी, जो ब्राह्मी लिपिके नामसे प्रसिद्ध हुई । इसी लिपिका विकसित रूप वर्तमान नागरी लिपि है। भरत इन्हींके पुत्र थे, जिनके नामसे इस देशका नाम भारत पड़ा। भरत बड़े ज्ञानी और विवेकी थे। ये राजकाज करते हुए भी सम्यग्दृष्टि थे, इसीलिये ये 'विदेह भरत' के नामसे प्रसिद्ध थे। ये प्रथम पखंडाधिपति चक्रवर्ती थे। ऋषभदेवने अपने राज्यकालमें समाज-व्यवस्थाकी स्थिरताके लिये प्रजाका कर्मके अनुसार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रके रूपमें विभाजन कर त्रिवर्णकी स्थापना की। जो व्यक्ति रक्षा करनेमें कटिबद्ध वीर प्रकृतिके थे उन्हें क्षत्रिय, व्यापार और कृपिप्रधान वृत्तिवालोंको वैश्य और शिल्प तथा नृत्य आदि कलाओंसे आजीविका चलानेवालोंको शूद्र वर्ण में स्थान दिया। ऋषभदेवके मुनि हो जानेके बाद भरत चक्रवर्तीने इन्हीं तीन वर्णो से व्रत और चारित्र धारण करनेवाले सुशील व्यक्तियोंका ब्राह्मण वर्ण बनाया । इसका आधार केवल व्रत-संस्कार था। अर्थात् जो व्यक्ति अहिंसा आदि व्रतोंसे सुसंस्कृत थे वे ब्राह्मणवर्णमें परिगणित किये गए । इस तरह गुण और कर्म के अनुसार चातुर्वर्ण्य व्यवस्था स्थापित हुई। ऋषभदेव ही प्रमुखरूपसे कर्मभूमि-व्यवस्थाके अग्र सूत्रधार थे; अतः इन्हें आदिब्रह्मा या आदिनाथ कहते है। प्रजाको रक्षा और व्यवस्थामें तत्पर