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________________ अनुमानप्रमाणमीमांसा ३४९ कारण पराजित हो जायगा। यद्यपि दुष्ट साधन बोलनेसे वादीको जय नहीं मिलेगा, किन्तु वह पराजित भी नहीं माना जायगा। इसी तरह एक स्थल ऐसा है जहाँ वादो निर्दोष साधन बोलता है, प्रतिवादी कुछ अंटसंट दूषणोंको कहकर दूषणाभासका उद्भावन करता है । वादी प्रतिवादीकी दूषणाभासता नहीं बताता । ऐसी दशामे किसीको जय या पराजय न होगी। प्रथम स्थलमें अकलंकदेव स्वपक्षसिद्धि और परपक्षनिराकरणमूलक जय और पराजयको व्यवस्थाके आधारसे यह कहते है कि यदि प्रतिवादीको दूपणाभास कहनेके कारण पराजय मिलती है तो वादीकी भी साधनाभास कहनेके कारण पराजय होनी चाहिये, क्योंकि यहाँ वादी स्वपक्षसिद्धि नहीं कर सका है। अकलंकदेवके मतसे एकका स्वपक्षा सिद्ध करना ही दूसरेके पदाकी असिद्धि है । अतः जयका मूल आधार स्वपक्षासिद्धि है और पराजयका मूल कारण पक्षका निराकृत होना है । तात्पर्य यह कि जब 'एकके जयमें दूसरेकी पराजय अवश्यंभावी है' ऐसा नियम है तब स्वपक्षसिद्धि और पर पक्षनिराकृति ही जय-पराजयके आधार माने जाने चाहिये । बौद्ध वचनाधिक्य आदिको भी दूषणोंमें शामिल करके उलझ जाते हैं। सीधी बात है कि परस्पर दो विरोधी पक्षोंको लेकर चलनेवाले वादमें जो भी अपना पक्ष सिद्ध करेगा, वह जयलाभ करेगा और अर्थात् ही दूसरेका, पक्षका निराकरण होनेके कारण पराजय होगा। यदि कोई भी अपनी पक्षसिद्धि नहीं कर पाता है और एक-वादी या प्रतिवादो वचनाधिक्य कर जाता है तो इतने मात्रसे उसकी पराजय नहीं होनी चाहिए । या तो दोनोंकी ही पराजय हो या दोनोंको हो जयाभाव रहे। अतः स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष-निराकरणमलक ही जयपराजयव्यवस्था सत्य और अहिंसाके आधारसे न्याय्य है। छोटे-मोटे वचनाधिक्य आदिके कारण न्यायतुलाको नहीं डिगने देना चाहिये । वादी सच्चे साधन बोलकर अपने पक्षको सिद्धि करनेके बाद वचनाधिक्य और नाटकादिकी घोषणा
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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