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अनुमानप्रमाणमीमांसा
३१३ समय ही हो जाता है । इसके पक्ष और हेतु ये दो अंग भी माने जाते है । यहाँ 'पक्ष' शब्दसे साध्यधर्म और धर्मीका समुदाय विवक्षित है, क्योंकि साध्यधर्मविशिष्ट धर्मीको ही पक्ष कहते हैं। यद्यपि स्वार्थानुमान ज्ञानरूप है, और ज्ञानमें ये सब विभाग नहीं किये जा सकते; फिर भी उसका शब्दसे उल्लेख तो करना ही पड़ता है। जैसे कि घटप्रत्यक्षका 'यह घडा है' इस शब्दके द्वारा उल्लेख होता है, उसी तरह 'यह पर्वत अग्निवाला है, धूमवाला होनेसे' इन शब्दोंके द्वारा स्वार्थानुमानका प्रतिपादन होता है । धर्मीका स्वरूप:
धर्मी प्रसिद्ध होता है। उसकी प्रसिद्धि कहीं प्रमाणसे, कहीं विकल्पसे और कहीं प्रमाण और विकल्प दोनोंसे होती है । प्रत्यक्षादि किसी प्रमाणसे जो धर्मी सिद्ध होता है, वह प्रमाणसिद्ध है, जैसे पर्वतादि । जिसकी प्रमाणता या अप्रमाणता निश्चित न हो ऐसी प्रतीतिमात्रसे जो धर्मी सिद्ध हो उसे विकल्पसिद्ध कहते हैं, जैसे 'सर्वज्ञ है, या खरविपाण नहीं हैं।' यहाँ अस्तित्व और नास्तित्वको सिद्धिके पहले सर्वज्ञ और खरविषाणको प्रमाणसिद्ध नहीं कह सकते। वे तो मात्र प्रतीति या विकल्पसे ही सिद्ध होकर धर्मी बने हैं । इस विकल्पसिद्ध धर्मीमें केवल सत्ता और असत्ता ही साध्य हो सकती है, क्योंकि जिनकी सत्ता और असत्तामें विवाद है, अर्थात् अभी तक जिनकी सत्ता या असत्ता प्रमाणसिद्ध नहीं हो सकी है, वे ही धर्मी विकल्पसिद्ध होते हैं। प्रमाण और विकल्प दोनोंसे प्रसिद्ध धर्मी उभयसिद्धधर्मी कहलाता है, जैसे 'शब्द अनित्य है', यहाँ वर्तमान शब्द तो प्रत्यक्षगम्य होनेसे प्रमाणसिद्ध है, किन्तु भूत और भविष्यत तथा देशान्तरवर्ती शब्द विकल्प या प्रतीतिसे सिद्ध है और संपूर्ण शब्दमात्रको धर्मी बनाया है, अतः यह उभयसिद्ध है।
१ 'प्रसिद्धो धर्मी ।' -परीक्षामुख ३।२२ । २ देखो, परीक्षामुख ३२२३ ।