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जैनदर्शन प्रमाण माना जाय या वेदको? उस धर्ममार्गके साक्षात्कारके लिये धर्मकीर्तिने आत्मा ( ज्ञानप्रवाह ) से दोषोंका अत्यन्तोच्छेद माना और नैरारम्यभावना आदि उसके साधन बताये ।
तात्पर्य यह कि जहाँ कुमारिलने प्रत्यक्षसे धर्मज्ञताका निषेध करके धर्मके विषयमें वेदका ही अव्याहत अधिकार स्वीकार किया है, वहाँ धर्मकोतिने प्रत्यक्षसे ही धर्म-मोक्षमार्गका साक्षात्कार मानकर प्रत्यक्षके द्वारा होनेवाली धर्मज्ञताका जोरोंसे सर्मथन किया है। ___ धर्मकोतिके टोकाकार प्रज्ञाकरगुप्तने' सुगतको धर्मज्ञके साथ-ही-साथ सर्वज्ञ-त्रिकालवर्ती यावत्पदार्थोंका ज्ञाता-भी सिद्ध किया है और लिखा है कि सुगतको तरह अन्य योगी भी सर्वज्ञ हो सकते हैं यदि वे अपनी साधक अवस्थामें रागादिनिर्मुक्तिकी तरह सर्वज्ञताके लिए भी यत्न करें। जिनने वीतरागता प्राप्त कर ली है, वे चाहें तो थोड़े-से प्रयत्नसे ही सर्वज्ञ बन सकते हैं। आ० शान्तरक्षित भी इसी तरह धर्मज्ञतासाधनके साथ ही साथ सर्वज्ञता सिद्ध करते हैं और सर्वज्ञताको वे शक्तिरूपसे सभी वीतरागोंमें मानते हैं। कोई भी वीतराग जब चाहे तब जिस किसी भी वस्तुका साक्षात्कार कर सकता है ।
१. 'ततोऽस्य वीतरागत्वे सर्वार्थशानसंभवः ।
समाहितस्य सकलं चकास्तीति विनिश्चितम् ॥ सर्वेषां वीतरागाणामेतत् कस्मान्न विद्यते ? रागादिक्षयमात्रे हि तैर्यत्नस्य प्रवर्तनात् ॥ पुनः कालान्तरे तेषां सर्वशगुणरागिणाम् । अल्पयत्नेन सर्वशत्वस्य सिद्धिरवारिता ॥
___ -प्रमाणवार्तिकालं. पृ० ३२९ । २. 'यद्यदिच्छति वोधुवा तत्तद्वेत्ति नियोगताः । शक्तिरेवंविधा तस्य प्रहोणावरणो घसौ ।'
-तत्त्वसं० का० ३३२८ ।