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________________ २६९ प्रत्यक्षप्रमाणमीमांसा प्रत्यक्षमें कोई भी अन्य ज्ञान अपेक्षित नहीं होता। इसी विशेषताके कारण इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्षरूपी मतिको संव्यवहारप्रत्यक्ष का पद मिला है। १. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष पाँच इन्द्रियाँ और मन इन छह कारणोंसे संव्यवहारप्रत्यक्ष उत्पन्न होता है । इसके मूल दो भेद हैं (१) इन्द्रियसंव्यवहारप्रत्यक्ष (२) अनिन्द्रियसंव्यवहारप्रत्यक्ष । अनिन्द्रियप्रत्यक्ष केवल मनसे उत्पन्न होता है, जब कि इन्द्रियप्रत्यक्षमें इन्द्रियोंके साथ मन भी कारण होता है । इन्द्रियोंकी प्राप्यकारिता-अप्राप्यकारिता : 'इन्द्रियोंमें चक्षु और मन अप्राप्यकारी है अर्थात् ये पदार्थको प्राप्त किये बिना ही दूरसे ही उसका ज्ञान कर लेते हैं । स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ पदार्थोंसे सम्बद्ध होकर उन्हें जानती हैं। कान शब्द को स्पृष्ट होनेपर सुनता है। स्पर्शनादि इन्द्रियाँ पदार्थोंके सम्बन्धकालमें उनसे स्पृष्ट भी होती हैं और बद्ध भी । बद्धका अर्थ है-इन्द्रियोंमें अल्पकालिक विकारपरिणति । जैसे अत्यन्त ठण्डे पानीमें हाथ डुबानेपर कुछ कालतक हाथ ऐसा ठिठुर जाता है कि उससे दूसरा स्पर्श शीघ्र गृहीत नहीं होता। किसी तेज गरम पदार्थको खा लेनेपर रसना भी विकृत होती हुई देखी जाती है । परन्तु कानसे किसी भी प्रकारके शब्द सुननेपर ऐसा कोई विकार अनुभवमें नहीं आता। सन्निकर्ष-विचार: नैयायिकादि चक्षुका भी पदार्थके साथ सन्निकर्ष मानते हैं। उनका १ 'पुटुं सुणेइ सदं अपुढे पुण वि पस्सदे रूपं । फासं रसं च गंधं बद्धं पुढे विजाणादि ॥'-आ० नि० गा० ५।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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