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जैनदर्शन
ही किसी एक गुणके द्वारा पदार्थको जाननेका उपक्रम करे, परन्तु उस गुणके द्वारा वह सम्पूर्ण वस्तुको ही ग्रहण करता है । आँखके द्वारा देखी जाने वाली वस्तु यद्यपि रूपमुखेन देखी जाती है, पर प्रमाणज्ञान रूपके द्वारा पूरी वस्तुको ही समग्रभावसे जानता है। इसीलिए प्रमाणको सकलादेशी कहते हैं। वह हर हालतमे सकल वस्तुका हो ग्राहक होता है । उसमें गौण-मुख्यभाव इतना ही है कि वह भिन्न-भिन्न समयोंमे अमुकअमुक इन्द्रियोंके ग्राह्य विभिन्न गुणोंके द्वारा पूरी वस्तुको जाननेका प्रयास करता है । जो गुण जिस समय इन्द्रियज्ञानका विषय होता है उस गुणकी मुख्यता इतनी ही है कि उसके द्वारा पूरी वस्तु गृहीत हो रही है । यह नहीं कि उसमें रूप मुख्य हो और रसादि गौण, किन्तु रूपके छोरसे समस्त वस्तुपट देखा जा रहा है। जब कि नयमें रूप मुख्य होता है और रसादि गौण । नयमें वही धर्म प्रधान बनकर अनुभवका विषय होता है, जिसको विवक्षा या अपेक्षा होती है । नय प्रमाणके द्वारा गृहोत समस्त और अखण्ड वस्तुको खण्ड-खण्ड करके उसके एक-एक देशको मुख्यरूपसे ग्रहण करता है। प्रमाण घटको "घटोऽयम" के रूपमें समग्र-का-समग्र जानता है जब कि नय "रूपवान् घटः" करके घड़ेको केवल रूपकी दृष्टिसे देखता है । 'रूपवान् घटः' इस प्रयोगमें यद्यपि एक रूपगुणकी प्रधानता दिखती है, परन्तु यदि इस वाक्यमें रूपके द्वारा पूरे घटको जाननेका अभिप्राय है तो यह वाक्य सकलादेशी है और यदि केवल घटके रूपको ही जाननेका अभिप्राय है तो वह मात्र रूपग्राही होनेसे विकलादेशी हो जाता है । विभिन्न लक्षण :
इस तरह सामन्यतया जैन परम्परामें ज्ञानको ही प्रमाका करण माना है । वह प्रमाणज्ञान सम्पूर्ण वस्तुको ग्रहण करता है । उसमें ज्ञानसामान्यका स्वसंवेदित्व धर्म भी रहता है । प्रमाण होनेसे उसे अविसंवादी १. "तथा चोक्तं सकलादेशः प्रमाणाधीनः"-सर्वार्थसि० १।६ ।