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निर्जरातत्त्व-निरूपण
२४३ है, और वह साधना करे; तो क्षणमात्रमें पुरानी वासनाएँ क्षीण हो सकती हैं।
"नामुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।" अर्थात् 'सैकड़ों कल्पकाल बीत जानेपर भी बिना भोगे कर्मोका नाश नहीं हो सकता।' यह मत प्रवाहपतित साधारण प्राणियोंको लागू होता है । पर जो आत्मपुरुषार्थी साधक है उनको ध्यानरूपी अग्नि तो क्षणमात्र में समस्त कर्मोको भस्म कर सकती है
"ध्यानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते क्षणात् ।”
ऐसे अनेक महात्मा हुए है, जिन्होंने अपनी साधनाका इतना बल प्राप्त कर लिया था कि साधु-दीक्षा लेते ही उन्हें कैवल्यकी प्राप्ति हो गई थी। पुरानी वामनाओं और राग, द्वेष तथा मोहके कुसंस्कारोंको नष्ट करनेका एक मात्र मुख्य साधन है-'ध्यान' अर्थात् चित्तकी वृत्तियोंका निरोध करके उसे एकाग्र करना। ___ इस प्रकार भगवान् महावीरने बन्ध (दुःख), बन्धके कारण (आस्रव), मोक्ष और मोक्षके कारण (संवर और निर्जरा) इन पाँच तत्त्वोंके साथहो-साथ उस आत्मतत्त्वके ज्ञानकी खास आवश्यकता बताई जिसे बन्धन
और मोक्ष होता है। इसी तरह उस अजीव तत्त्वके ज्ञानकी भी आवश्यकता है जिससे बंधकर यह जीव अनादि कालसे स्वरूपच्युत हो रहा है । मोक्षके साधन:
वैदिक संस्कृतिमें विचार या तत्त्वज्ञानको मोक्षका साधन माना है जब कि श्रमण संस्कृति चारित्र अर्थात् आचारको मोक्षका साधन स्वीकार करती है । यद्यपि वैदिक संस्कृतिने तत्त्वज्ञानके साथ-ही-साथ वैराग्य और संन्यासको भी मुक्तिका अङ्ग माना है, पर वैराग्यका उपयोग तत्त्वज्ञानकी पुष्टिमें किया है, अर्थात् वैराग्यसे तत्त्वज्ञान पुष्ट होता है और फिर उससे