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मोक्षतत्त्व-निरूपण
२३३ ही चाहिए जो कि अनादिकालसे आस्रवमलोंसे मलिन हो रही थी और जिसे साधनाके द्वारा निरास्रव अवस्थामें पहुंचाया गया है। तत्त्वसंग्रहपञ्जिका ( पृष्ठ १०४ ) में आचार्य कमलशीलने संसार और निर्वाणके स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाला यह प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है
“चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम् । तदेव तैर्विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥" अर्थात्-रागादि क्लेश और वासनामय चित्तको संसार कहते हैं और जब वही चित्त रागादि क्लेश और वासनाओंसे मुक्त हो जाता है, तब उसे भवान्त अर्थात् निर्वाण कहते हैं। इस श्लोकमें प्रतिपादित संसार और मोक्षका स्वरूप ही युक्तिसिद्ध और अनुभवगम्य है । चित्तकी रागादि अवस्था संसार है और उसीकी रागादिरहितता मोक्ष है। अतः समस्त कर्मोंके क्षयसे होनेवाला स्वरूप-लाभ ही मोक्ष है। आत्माके अभाव या चैतन्यके उच्छेदको मोक्ष नहीं कह सकते । रोगको निवृत्तिका नाम आरोग्य है, न कि रोगीको निवृत्ति या समाप्ति । दूसरे शब्दोंमें स्वास्थ्यलाभको आरोग्य कहते है, न कि रोगके साथ-साथ रोगीकी मृत्यु या समाप्तिको। निर्वाणमें ज्ञानादि गुणोंका सर्वथा उच्छेद नहीं होता ___ वैशेषिक बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेप, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन नव विशेषगुणोंके उच्छेदको मोक्ष कहते हैं। इनका मानना है कि इन विशेषगुणोंको उत्पत्ति आत्मा और मनके संयोगसे होती है । मनके संयोगके हट जानेसे ये गुण मोक्ष अवस्थामें उत्पन्न नहीं होते और
१. "मुक्तिनिर्मलता धियः ।"-तत्त्वसंग्रह पृष्ठ १८४ । २. “आत्मलामं विदुमोक्ष जीवस्यान्तर्मलक्षयात् । नाभावो नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम् ॥"
-सिद्धिवि० पृ. ३८४ ।