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अजीवतत्त्व-निरूपण
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उस अजीवतत्त्वके ज्ञानकी भी आवश्यकता है। जब तक हम इस अजीव - तत्त्वको नहीं जानेंगे तब तक 'किन दोमें बन्ध हुआ है' यह मूल बात ही अज्ञात रह जाती है। अजीवतत्त्वमें धर्म, अधर्म, आकाश और कालका भले ही सामान्यज्ञान हो; क्योंकि इनसे आत्माका कोई भला बुरा नहीं होता, परन्तु पुद्गल द्रव्यका किंचित् विशेषज्ञान अपेक्षित है | शरीर, मन, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ्वास और वचन आदि सब पुद्गलका ही है । जिसमें शरीर तो चेतनके संसर्गसे चेतनायमान हो रहा हैं । जगत में रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाले यावत् पदार्थ पौद्गलिक है । पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि सभी पौद्गलिक है । इनमें किसी में कोई गुण प्रकट रहता है और कोई अनुद्भूत । यद्यपि अग्निमें रस, वायुमें रूप और जलमें गन्ध अनुद्भूत है फिर भी ये सब पुद्गलजातीय ही पदार्थ है । शब्द, प्रकाश, छाया, अन्धकार, सर्दी, गर्मी सभी पुद्गल स्कन्धोंकी अवस्थाएँ है । मुमुक्षुके लिए शरीरकी पौद्गलिकताका ज्ञान तो इसलिए अत्यन्त जरूरी है कि उसके जीवनकी आसक्तिका मुख्य केन्द्र वही है । यद्यपि आज आत्माका ६६ प्रतिशत विकास और प्रकाश शरीराधीन है, शरीरके पुर्जोके बिगड़ते ही वर्तमान ज्ञान - विकास रुक जाता है और शरीरके नाश होनेपर वर्तमान शक्तियाँ प्रायः समाप्त हो जाती है, फिर भी आत्माका अपना स्वतंत्र अस्तित्व तेल-बत्तीसे भिन्न ज्योतिको तरह है ही । शरीरका अणु-अणु जिसकी शक्तिसे संचालित और चेतनायमान हो रहा है वह अन्तः ज्योति दूसरी ही है । यह आत्मा अपने सूक्ष्म कार्मणशरीर के अनुसार वर्तमान स्थूल शरीरके नष्ट हो जानेपर दूसरे स्थूल शरीरको धारणा करता है । आज तो आत्माके सात्त्विक, राजस और तामस सभी प्रकारके विचार और संस्कार कार्मणशरीर और प्राप्त स्थूल शरीरके अनुसार ही विकसित हो रहे हैं । अत; मुमुक्षुके लिए इस शरीर — मुद्गलकी प्रकृतिका परिज्ञान अत्यन्त आवश्यक है जिससे वह इसका उपयोग आत्माके विकास में कर सके, हासमें नहीं । यदि