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आत्मतत्त्व-निरूपण
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करते थे; संशयका
दीक्षित होते थे । जब तक इन सब पंचमेल व्यक्तियोंके, जो आत्माके विषय में विभिन्न मत रखते थे और उसकी चर्चा भी वस्तुस्थितिमूलक समाधान न हो जाता, तब तक वे मानस अहिंसाका वातावरण नहीं बना सकते थे । सुस्थिर और सुदृढ़ दर्शन के बिना परीक्षक- शिष्योंको अपना अनुयायी नहीं बना सकता । श्रद्धामूलक भावना तत्काल कितना ही समर्पण क्यों न करा ले पर उसका स्थायित्व विचार-शुद्धिके बिना कथमपि संभव नहीं है ।
यही कारण है कि भगवान् महावीरने उस मूलभूत आत्मतत्त्वके स्वरूपके विषय में मौन नहीं रखा और अपने शिष्योंको यह बताया कि धर्म वस्तु के यथार्थ स्वरूपकी प्राप्ति ही है। जिस वस्तुका जो स्वरूप है, उसका उस पूर्ण स्वरूपमें स्थिर होना ही धर्म है । अग्नि जब तक अपनी उष्णताको कायम रखती है, तबतक वह धर्मस्थित है । यदि दीपशिखा वायुके झोंकोसे स्पन्दित हो रही है और चंचल होनेके कारण अपने निश्चल स्वरूपसे च्युत हो रही है, तो कहना होगा कि वह उतने अंशमें धर्मस्थित नहीं है । जल जब तक स्वाभाविक शीतल है, तभी तक धर्म-स्थित है । यदि वह अग्निके संसर्गसे स्वरूपच्युत होकर गर्म हो जाता है, तो वह धर्म-स्थित नहीं है । इस परसंयोगजन्य विकार - परिणतिको हटा देना ही जलको धर्म-प्राप्ति है । उसी तरह आत्माका वीतरागत्व, अनन्तचैतन्य, अनन्तसुख आदि स्वरूप परसंयोगसे राग, द्वेष, तृष्णा, दुःख आदि विकाररूपसे परिणत होकर अधर्म बन रहा है । जबतक आत्माके यथार्थ स्वरूपका निश्चय और वर्णन न किया जाय तब तक यह विकारी आत्मा कैसे अपने स्वतन्त्र स्वरूपको पानेके लिए उच्छ्वास भी ले सकता है ? रोगोको जब तक अपने मूलभूत आरोग्य स्वरूपका ज्ञान न हो तब तक उसे यही निश्चय नहीं हो सकता कि मेरी यह अस्वस्थ अवस्था रोग है । वह उस रोगको विकार तो तभी मानेगा जब उसे अपनो आरोग्य अवस्थाका यथार्थ दर्शन हो, और जब तक वह रोगको विकार नहीं मानता तब तक
परस्पर समता और कोई भी धर्म अपने