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जीवद्रव्य विवेचन द्रव्य है, अतः लोकाकाशमें होनेवाला कोई भी परिणमन समूचे आकाशमें हो होता है । काल एकप्रदेशी होनेके कारण द्रव्य होकर भी ‘अस्तिकाय' नहीं कहा जाता; क्योंकि बहुप्रदेशी द्रव्योंकी ही 'अस्तिकाय' संज्ञा है। ____श्वेताम्बर जैन परम्परामें कुछ आचार्य कालको स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते। बौद्ध परम्परामें काल:
बौद्ध परम्परामें काल केवल व्यवहारके लिए कल्पित होता है। यह कोई स्वभावसिद्ध पदार्थ नहीं है, प्रज्ञप्तिमात्र है। ( अट्ठशालिनी १।३। २६) १६) । किन्तु अतीत अनागत और वर्तमान आदि व्यवहार मुख्य कालके
सादा नहीं है। प्रज्ञ बिना नहीं हो सकते । जैसे कि बालकमें शेरका उपचार मुख्य शेरके सद्भावमें ही होता है, उसी तरह समस्त कालिक व्यवहार मुख्य काल द्रव्यके बिना नहीं बन सकते।
इस तरह जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छ द्रव्य अनादिसिद्ध मौलिक हैं । सबका एक ही सामान्य लक्षण है-उत्पाद-व्ययध्रौव्ययुक्तता। इस लक्षणका अपवाद कोई भी द्रव्य कभी भी नहीं हो सकता । द्रव्य चाहे शुद्ध हों या अशुद्ध, वे इस सामान्य लक्षणसे हर समय संयुक्त रहते हैं। वैशेषिककी द्रव्य मान्यताका विचार :
वैशेषिक पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ये नव द्रव्य मानते हैं। इनमें पृथ्वी आदिक चार द्रव्य तो 'रूप रस गन्ध स्पर्शवत्त्व' इस सामान्य लक्षणसे युक्त होनेके कारण पुद्गल द्रव्य में अन्तर्भूत हैं । दिशाका आकाशमें अन्तर्भाव होता है। मन स्वतन्त्र द्रव्य नहीं हैं, वह यथासम्भव जीव और पुद्गलकी ही पर्याय है। मन दो प्रकारका होता है-एक द्रव्यमन और दूसरा भावमन । द्रव्यमन आत्माको विचार करनेमें सहायता देनेवाले पुद्गल-परमाणुओंका स्कन्ध है।