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जीवद्रव्य विवेचन पटना आदिमें नहीं है, अन्यथा काशी और पटना एक ही क्षेत्रमें आ जायेंगे। बोद्ध-परम्परामें आकाशका स्वरूप : ___ बौद्ध परम्परामें आकाशको अमंस्कृत धर्मोमे गिनागा है और उसका वर्णन'' 'अनावृति' ( आवरणाभाव ) रूपसे किया है। यह किगीको आवरण नहीं करता और न किसीसे आवृत होना है। संस्कृतका अर्थ है, जिसमें उत्पादादि धर्म पाये जायें। किन्तु सर्वणिकवादी बौद्धका, आकाशको असंस्कृत अर्थात् उत्पादादि धर्मसे रहित मानना कुछ समझमें नहीं आता। इसका वर्णन भले ही अनावृति रूपसे किया जाय, पर वह भावात्मक पदार्थ है, यह वैभाषिकोके विवेचनसे सिद्ध होता है। कोई भी भावात्मक पदार्थ बोद्ध के मतमे उत्पादादिशन्य कम हो सकता है ? यह तो हो सकता है कि उममे होनेवाले उत्पादादिका हम वर्णन न कर सकें, पर स्वरूपभूत उत्पादादिसे इनकार नहीं किया जा सकता और न केवल वह आवरणाभावरूप ही माना जा मकता है । 'अभिधम्मत्यमंगह'में आकाशधातुको परिच्छेदरूप माना है। वह चार महाभूतोंकी तरह निष्पन्न नहीं होता; किन्तु अन्य पृथ्वो आदि धातुओंके परिच्छेद-दर्शन मात्रसे इसका ज्ञान होता है, इसलिए इसे परिच्छेदरूप कहते है; पर आकाश केवल परिच्छेदरूप नहीं हो सकता; क्योकि वह अर्थक्रियाकारी है । अतः वह उत्पादादि लक्षणोंसे युक्त एक मंस्कृत पदार्थ है। कालद्रव्य
समस्त द्रव्योंके उत्पादादिरूप परिणमनमें सहकारी 'कालद्रव्य' होता है । इसका लक्षण है वर्तना। यह स्वयं परिवर्तन करते हुए अन्य द्रव्योंके
१. "तत्राकाशमनावृतिः"-अभिधर्मकोश १।५। २. “छि: शधात्वाख्यम् आले कतमसी किल।"
-अभिधर्मकोश ११२८। १२