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जीवद्रव्य - विवेचन
१६१ अगुरुलघुगुणके कारण उसके न तो प्रदेशोंमें ही न्यूनाधिकता होती हैं, और न गुणोंमें ही । उसके आकार और प्रकार भो सन्तुलित रहते हैं ।
सिद्धका स्वरूप निम्नलिखित गाथामें बहुत स्पष्ट रूपसे कहा गया है“किम्मा अट्टगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा । लोयग्ग-ठिदा णिश्चा उप्पादवएहिं संजुत्ता ॥ "
- नियममार गा० ७२ ।
अर्थात् — सिद्ध ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं । सम्यक्त्व ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व अगुरुलघुत्व और अव्याबाध इन आठ गुणोंसे युक्त हैं । अपने पूर्व अन्तिम शरीरसे कुछ न्यून आकारवाले हैं । नित्य हैं और उत्पाद - व्ययसे युक्त हैं, तथा लोकके अग्रभाग में स्थित हैं ।
इस तरह जीवद्रव्य संसारी और मुक्त दो प्रकारोंमें विभाजित होकर भी मूल स्वभावसे समान गुण और समानशक्तिवाला है ।
पुद्गल द्रव्य :
'पुद्गल' द्रव्यका सामान्य लक्षण है- रूप, रस, गन्ध और स्पर्शसे युक्त होना । जो द्रव्य स्कन्ध अवस्थामें पूरण अर्थात् अन्य-अन्य परमाणुओंसे मिलना और गलन अर्थात् कुछ परमाणुओं का विछुड़ना, इस तरह उपचय और अपचयको प्राप्त होता है, वह 'पुद्गल' कहलाता है । समस्त दृश्य जगत इस 'पुद्गल' का ही विस्तार है । मूल दृष्टिसे पुद्गलद्रव्य परमाणुरूप ही है । अनेक परमाणुओंसे मिलकर जो स्कन्ध बनता है, वह संयुक्तद्रव्य ( अनेकद्रव्य ) है । स्कन्धपर्याय स्कन्धान्तर्गत सभी पुद्गल - परामाणुओं की संयुक्त पर्याय है। वे पुद्गलपरमाणु जब तक अपनी बंधशक्तिसे शिथिल या निबिड़रूपमें एक-दूसरेसे जुटे रहते हैं, तब तक
१. “स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः” -तत्त्वाथसू० ५।२३ ।
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