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जैनदर्शन
अपनी कारणसामग्रीके अनुसार होते रहते है । इस स्वभावतः परिणामी द्रव्योंके महासमुदायरूप जगतको किसीने सर्वप्रथम किसी समय चलाया हो, ऐसे कालकी कल्पना नहीं की जा सकती । इसीलिए इस जगतको स्वयंसिद्ध और अनादि कहा जाता है। अतः न तो सर्वप्रथम इस जगत-यन्त्रको चलानेके लिए किसी चालककी आवश्यकता है और न इसके अन्तर्गत जीवोके पुण्य-पापका लेखा-जोखा रखनेवाले किसी महालेखककी, और अच्छे-बुरे कर्मोका फल देनेवाले और स्वर्ग या नरक भेजनेवाले किसी महाप्रभुकी हो । जो व्यक्ति शराब पियेगा उसका नशा तीव्र या मन्द रूपमें उस व्यक्तिको अपने आप आयगा ही।
एक ईश्वर संसारके प्रत्येक अणु-परमाणुकी क्रियाका संचालक बने और प्रत्येक जीवके अच्छे-बुरे कार्योका भी स्वयं वही प्रेरक हो और फिर वही बैठकर संसारी जीवोंके अच्छे-बुरे कार्मोका न्याय करके उन्हें सुगति और दुर्गतिमे भेजे, उन्हे सुख-दुख भोगनेको विवश करे यह कैसी क्रीड़ा है ! दुराचारके लिए प्रेरणा भी वही दे, और दण्ड भी वही। यदि सचमुच कोई एक ऐसा नियन्ता है तो जगतको विषमस्थितिके लिए मूलतः वही जबाबदेह है । अतः इस भूल-भुलैयाके चक्रसे निकलकर हमे वस्तुस्वरूपकी दृष्टिसे ही जगतका विवेचन करना होगा और उस आधारसे ही जब तक हम अपने ज्ञानको सच्चे दर्शनकी भूमिपर नहीं पहुँचायेंगे, तब तक तत्त्वज्ञानको दिशामे नही बढ़ सकते। यह कैसा अन्धेर है कि ईश्वर हत्या करनेवालेको भी प्रेरणा देता है, और जिसकी हत्या होती है उसे भी;
और जब हत्या हो जाती है, तो वही एकको हत्यारा ठहराकर दण्ड भी दिलाता है । उसको यह कैसी विचित्र लीला है । जब व्यक्ति अपने कार्यमे स्वतन्त्र ही नहीं है, तब वह हत्याका कर्ता कैसे ? अतः प्रत्येक जीव अपने कार्योका स्वयं प्रभु है, स्वयं कर्ता है और स्वयं भोक्ता है ।
अतः जगत-कल्याणकी दृष्टिसे और वस्तुके स्वाभाविक परिणमनकी स्थितिपर गहरा विचार करनेसे यही सिद्धान्त स्थिर होता है कि यह