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जीवद्रव्य विवेचन
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बिगड़ जाय और बिगड़ने पर अपनी मरम्मत भी स्वयं कर ले, स्वयं प्रेरणा ले, और समझ-बूझकर चले, यह असंभव है ।
कर्त्ता और भोक्ता :
आत्मा स्वयं कर्मोका कर्ता है और उनके फलोंका भोक्ता है । सांख्यकी तरह वह अकर्त्ता और अपरिणामी नहीं है और न प्रकृतिके द्वारा किये कर्मोका भोक्ता हो । इस सर्वदा परिणामी जगतमे प्रत्येक पदार्थका परिणमन-चक्र प्राप्त सामग्रीसे प्रभावित होकर और अन्यको प्रभावित करके प्रतिक्षण चल रहा | आत्माकी कोई भी क्रिया, चाहे वह मनसे विचारात्मक हो, या वचनव्यवहाररूप हो, या शरीरकी प्रवृत्तिप्प हो, अपने कार्मण शरीरमे और आसपास के वातावरणमें निश्चित असर डालती है । आज यह वस्तु सूक्ष्म कैमरा यन्त्रसे प्रमाणित की जा चुकी है । जिस कुर्सीपर एक व्यक्ति बैठता है, उस व्यक्तिके उठ जाने के बाद अमुक समय तक वहाँके वातावरणमे उस व्यक्तिका प्रतिबिम्ब कैमरेसे लिया गया है । विभिन्न प्रकारके विचारों और भावनाओंकी प्रतिनिधिभूत रेखाएँ मस्तिष्कमे पड़ती है, यह भी प्रयोगोंसे सिद्ध किया जा चुका है ।
चैतन्य इन्द्रियों का धर्म भी नहीं हो सकता; क्योंकि इन्द्रियोंके बने रहनेपर चैतन्य नष्ट हो जाता है । यदि प्रत्येक इन्द्रियका धर्म चैतन्य माना जाता है; तो एक इन्द्रियके द्वारा जाने गये पदार्थका इन्द्रियान्तरसे अनुसन्धान नहीं होना चाहिए । पर इमलीको या आमकी फाँकको देखते ही जीभ में पानी आ जाता है । अतः ज्ञात होता है कि आँख और जीभ आदि इन्द्रियों का प्रयोक्ता कोई पृथक् सूत्र संचालक है । जिस प्रकार शरीर अचेतन है उसी तरह इन्द्रियाँ भी अचेतन हैं, अतः अचेतनसे चैतन्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि हो; तो उसके रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदिका अन्वय चैतन्यमें उसी तरह होना चाहिए, जैसे कि मिट्टीके रूपादिका अन्वय मिट्टी से उत्पन्न घड़े में होता है ।