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________________ जीवद्रव्य विवेचन १४७ उसे शरीररूप न मानकर पृथक् द्रव्य स्वीकार करके भी शरीरपरिमाण मानना अपनी अनोखी सूझ है और इससे भौतिकवादियोंके द्वारा दिये जानेवाले आक्षेपोंका निराकरण हो जाता है । इच्छा आदि स्वतंत्र आत्माके धर्म हैं: इच्छा, संकल्पशक्ति और भावनाएँ केवल भौतिक मस्तिष्ककी उपज नहीं कही जा सकतीं; क्योंकि किसी भी भौतिक यंत्रमें स्वयं चलने, अपने आपको टूटने पर सुधारने और अपने सजातीयको उत्पन्न करनेकी क्षमता नहीं देखी जाती । अवस्थाके अनुसार बढ़ना, घावका अपने आप भर जाना, जीर्ण हो जाना इत्यादि ऐसे धर्म है, जिनका समाधान केवल भौतिकतासे नहीं हो सकता । हजारों प्रकारके छोटे-बड़े यन्त्रोंका आविष्कार, जगत् के विभिन्न कार्य-कारणभावोंका स्थिर करना, गणितके आधारपर ज्योतिषविद्याका विकास, मनोरम कल्पनाओंसे साहित्याकाशको रंग-विरंगा करना आदि बातें, एक स्वयं समर्थ, स्वयं चैतन्यशाली द्रव्यका ही कार्य हो सकतीं हैं । प्रश्न उसके व्यापक, अणु-परिमाण या मध्यम परिणामका हमारे सामने है | अनुभव सिद्ध कार्यकारणभाव हमें उसे संकोच और विस्तारस्वभाववाला स्वभावतः अमूर्तिक द्रव्य माननेको प्रेरित करता है । किसी असंयुक्त अखण्ड द्रव्यके गुणोंका विकास नियत प्रदेशोंमें नहीं हो सकता । यह प्रश्न किया जा सकता है कि जिस प्रकार आत्माको शरीरपरिमाण मानने पर भी देखनेकी शक्ति आँख में रहनेवाले आत्मप्रदेशों में मानी जाती है और सूँघने की शक्ति नाकमें रहनेवाले आत्मप्रदेशोंमें ही, उसी तरह आत्माको व्यापक मानकरके शरीरान्तर्गत आत्मप्रदेशों में ज्ञानादि गुणों का विकास माना जा सकता है ? परन्तु शरीरप्रमाण आत्मामें देखने और सूँघने की शक्ति केवल उन-उन आत्मप्रदेशोंमें ही नहीं मानी गई है, अपितु सम्पूर्ण आत्मामें । वह आत्मा अपने पूर्ण शरीर में सक्रिय रहता है, अतः वह उन-उन चक्षु, नाक आदि उपकरणोंके झरोखोंसे रूप और गंध आदिका
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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