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जैनदर्शन
जिसकी हत्या की उसका उसके हाथसे वैसा होना ही था । जिसे हत्याके अपराध में पकड़ा जाता है, वह भी जब नियतके परवश था तब उसका स्वातंत्र्य कहाँ है, जिससे उसे हत्याका कर्त्ता कहा जाय ? यदि वह यह चाहता कि 'मैं हत्या न करूँ और न कर सकता' तो हो उसकी स्वतन्त्रता कही जा सकती है, पर उसके चाहने न चाहनेका प्रश्न ही नहीं है ।
आ० कुन्दकुन्दका अकर्तृत्ववाद :
आचार्य कुन्दकुन्दने ‘समयसार' में' लिखा है कि 'कोई द्रव्य दूसरे द्रव्य में कोई गुणोत्पाद नहीं कर सकता । एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें कुछ नया उत्पन्न नहीं कर सकता । इसलिए सभी द्रव्य अपने-अपने स्वभावके अनुसार उत्पन्न होते रहते हैं।' इस स्वभावका वर्णन करनेवाली गाथाको कुछ विद्वान् नियतिवादके समर्थनमें लगाते । पर इस गाथामें सीधी बात तो यही बताई है कि कोई द्रव्य दूसरे द्रव्यमें के ई नया गुण नहीं ला सकता, जो आयगा वह उपादास योग्यताके अनुसार ही आयगा । कोई भी निमित्त उपादानद्रव्यमें असद्भूत शक्तिका उत्पादक नहीं हो सकता, वह तो केवल सद्भूत शक्तिका संस्कारक या विकासक है । इसीलिए गाथाके द्वितीयार्ध में स्पष्ट लिखा है कि 'प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव के अनुसार उत्पन्न होते हैं ।' प्रत्येक द्रव्यमें तत्कालमें भी विकसित होनेवाले अनेक स्वभाव और शक्तियाँ हैं । उनमेंसे अमुक स्वभावका प्रकट होना या परिणमन होना तत्कालीन सामग्री के ऊपर निर्भर करता है । भविष्य अनिश्चित है । कुछ स्थूल कार्यकारणभाव बनाये जा सकते हैं, पर कारणका अवश्य ही कार्य उत्पन्न करना सामग्रीकी समग्रता और अविकलतापर निर्भर है । नावश्य कारणानि कार्यन्ति भवन्ति” — कारण अवश्य ही कार्यवाले हों,
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१. देखो, गाथा पृ० ८२ पर । २. न्यायवि ० टीका २२४९ ।