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लोकव्यवस्था और तंतुसे ही पट, यह प्रतिनियत लोकव्यवस्था नहीं जम सकती । अतः प्रतिनियत कार्योंकी उत्पत्तिके लिये प्रतिनियत उपादान तथा सबके स्वतन्त्र कार्यकारणभाव स्वीकार करना चाहिये ।
स्वभाववाद:
स्वभाववादीका कहना है कि कांटोंका नुकीलापन, मृग और पक्षियोंके चित्र-विचित्र रंग, हंसका शुक्लवर्ण होना, शुकोंका हरापन और मयूरका चित्र-विचित्र वर्णका होना आदि सब स्वभावसे है । सृष्टिका नियन्त्रक कोई नहीं है । इस जगत्की विचित्रताका कोई दृष्ट हेतु उपलब्ध नहीं होता, अतः यह मव स्वाभाविक है, निर्हेतुक है। इसमें किसीका यत्न कार्य नहीं करता, किमीकी इच्छाके अधीन यह नहीं है ।
इम नादमें जहाँ तक किमी एक लोक-नियन्ताके नियन्त्रणका विरोध है वहाँ तक उसकी युक्तिमिद्धता है । पर यदि स्वभाववादका अर्थ अहेतुकवाद है, तो यह सर्वथा बाधित है, क्योंकि जगत्में अनन्त कार्योंकी अनन्त कारणमामग्री प्रतिनियत रूपसे उपलब्ध होती है। प्रत्येक पदार्थका अपने संभव कार्योंके करनेका स्वभाव होने पर भी उसका विकास बिना सामग्रीके नहीं हो सकता । मिट्टीके पिंडमें बड़ेको उत्पन्न करनेका स्वभाव विद्यमान होनेपर भी उसकी उत्पत्ति दंड, चक्र, कुम्हार आदि पूर्ण सामग्रीके होनेपर ही हो सकती है। कमलकी उत्पत्ति कीचड़से होती है; अतः पंक आदि सामग्रीकी कमलकी सुगन्ध और उसके मनोहर रूपके प्रति हेतृता स्वयं सिद्ध है, उनमें स्वभावको ही मुख्यता देना उचित नहीं है । यह ठीक है कि किसानका पुरुषार्थ खेत जोतकर बीज बो देने तक
१. “उक्तं च
"कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां च । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ॥"