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________________ भारतीय दशनको जैनदर्शनकी देन एक अंशका भी पूर्ण पता नहीं लगाया और न उसपर पूरा नियंत्रण ही रखा है । आजतकके सारे पुरुषार्थ अनन्त समुद्रमें एक बुबुद्के समान हैं । विश्व अपने पारस्परिक कार्य-कारणभावोंसे स्वयं सुव्यवस्थित और सुनियंत्रित है। ____ मूलतः एक सत्का दूसरे सत्पर कोई अधिकार नहीं है। चूंकि वे दो है, इसलिये वे अपनेमें परिपूर्ण और स्वतन्त्र है। सत् चाहे चेतन हो या अचेतन, अपनेमें अखण्ड और परिपूर्ण है । जो भी परिणमन होता है वह उसको स्वभावभुत उपादान-योग्यताको सीमामें ही होता है। जब अचेतन द्रव्योंकी यह स्थिति है तब चेतन व्यक्तियोंका स्वातन्त्र्य तो स्वयं निर्बाध है। चेतन अपने प्रयत्नोंसे कहीं अचेतनपर एक हदतक तात्कालिक नियत्रण कर भी ले, पर यह नियन्त्रण सार्वकालिक और सार्वदेशिकरूपमें न सम्भव है और न शक्य ही। इसी तरह एक चेतनपर दूसरे चेतनका अधि. कार या प्रभाव परिस्थिति-विशेषमें हो भी जाय, तो भी मूलतः उसका व्यक्तिस्वातन्त्र्य समाप्त नहीं हो सकता। मनुष्य अपने स्वार्थके कारण अधिक-से-अधिक भौतिक साधनों और अचेतन व्यक्तियोंपर प्रभुत्व जमानेको चेष्टा करता है, पर उसका यह प्रयत्न सर्वत्र और सर्वदाके लिये आज तक सम्भव नहीं हो सका है। इस अनादिसिद्ध व्यक्ति-स्वातन्त्र्यके आधारसे जैनदर्शनने किसी एक ईश्वरके हाथ इस जगतकी चोटी नहीं दी। सब अपनी-अपनी पर्यायोंके स्वामी और विधाता हैं। जब जीवित अवस्थामें व्यक्तिका अपना स्वातन्त्र्य प्रतिष्ठित है और वह अपने संस्कारोंके अनुसार अच्छी या बुरी अवस्थाओंको स्वयं धारण करता जाता है, स्वयं प्रेरित है, तब न किसी न्यायालयकी जरूरत है और न न्यायाधीश ईश्वरकी ही। सब अपने-अपने संस्कार और भावनाओंके अनुसार अच्छे और बुरे वातावरणको स्वयं सृष्टि करते हैं । यही संस्कार 'कर्म' कहे जाते हैं। जिनका परिपाक अच्छी और बुरी परिस्थितियोंका बीज बनता है। ये संस्कार चूंकि स्वयं उपाजित किये जाते हैं, अतः उनका परिवर्तन, परिवर्धन, संक्र
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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