SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 565
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाण-नय ५४७ आविर्भाव-तिरोभाव-जो पदार्थ गुण दूर है वो तिरोभाव और जो पदार्थ गुण समीप मे है वो आविर्भाव । जैसे-दूध मे घी का तिरोभाव है और मक्खन मे घी का आविर्भाव है। गौणता-मुख्यता-अन्य विषयो को छोड कर आवश्यक वस्तुओं का व्याख्यान करना सो मुख्यता और जो वस्तु गुप्त रूप से अप्रधानता से रही हो वो गौणता । जैसे-ज्ञान से मोक्ष होता ऐसा कहने में ज्ञान की मुख्यता रही और दर्शन, चारित्र तपादि की गौणता रही। उत्सर्ग-अपवाद - उत्सर्ग यह उत्कृष्ट मार्ग है और अपवाद उसका रक्षक है उत्सर्ग माग से पतित अपवाद का अवलबन लेकर फिर से उत्सर्ग ( उत्कृष्ट ) मार्ग पर पहुच सकता है । जैसे सदा ३ गुप्ति से रहना यह उत्सर्ग मार्ग है और ५ समिति यह गुप्ति के रक्षक (सहायक) अपवाद मार्ग है । जिन कल्प उत्कृष्ट मार्ग है, स्थविरकल्प अपवाद मार्ग । इत्यादि षट् द्रव्य मे भी जानना चाहिए। तीन आत्मा-बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा। बहिरात्मा-शरीर, धन, धान्यादि समृद्धि, कुटुम्ब परिवार आदि मे तल्लीन होवे सो मिथ्यात्वी । ___ अन्तरात्मा-वाह्य वस्तु को अन्य समझ कर उसे त्यागना चाहे व त्यागे वो अन्तरात्मा ४ से १३ गुण स्थान वाले । परमात्मा-सर्व कार्य जिसके सिद्ध हो गये हो और कर्म मुक्त होकर जो स्व-स्वरूप मे लीन है वह सिद्ध परमात्मा । चार ध्यान-(१) पदस्थ :--पञ्च परमेष्टि के गुणो का ध्यान करना सो पदस्थ ध्यान । (२) पिंडस्थ-शरीर मे रहे हुए अनन्त गुणयुक्त चैतन्य का अध्यात्म-ध्यान करना। (३) रूपस्थ-अरूपी होते हुए भी कर्म योग से आत्मा संसार मे अनेक रूप धारण करती है एव विचित्र संसार अवस्था का ध्यान करना और उससे छूटने का उपाय सोचना।
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy