SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनागम स्तोक संग्रह ४१० से अनन्ता लोक, काल से अनन्त काल और भाव से अर्ध पुद्गल परावर्त्तन । क्षेत्र से अनन्त वनस्पति काल - द्रव्य से अनन्त उत्स० अवस०, क, काल से अनन्त काल और भाव से असं० पुद्गल परावर्तन | अ० सा० - अनादि सांत, सा० सा० - सादि सांत । गाथा - जीव गइन्दिय काए जोए वेद कषाय लेसाय | सम्मत्त गारण दसरण संयम उवओग आहारे ॥ १ ॥ भासगयं परित पज्जत सुहुम सन्नी भवत्थि । चरिमेय एतेसित पदाणं कायठिई होइ णायव्वा ॥२॥ क्रम मार्गणा जघन्य कायस्थिति उत्कृष्ट कार्यस्थिति १ समुच्चय जीवकी २ नारकी की ३ देवता की ४ देवी की ५ तियंच की ६ तिर्यचणी की ७ मनुष्य की मनुष्यनी की सिद्ध भगवान् की mo १४ १५ १६ " " १० अपर्याप्ता नारकी की अन्तर्मुहूर्त ११ देवता की १२ देवी की १३ 17 " 33 " शाश्वता १० हजार वर्ष در " अन्तर्मुहूर्त 13 तिर्यच की तिर्यचनी की 13 31 शाश्वता मनुष्य की मनुष्यनी की " 29 19 " 31 23 37 11 ५५ पलकी अनन्त काल (वन० ) ३ पल्य और प्र० क्रोड पूर्व 19 शाश्वता ३३ सागरोपम "1 शाश्वता $9 अन्तर्मुहूर्त = "1 " 29 23 99 "" "
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy