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________________ पाँच देव ३७५ स्थान पर तेज मंडल विराजे व दशो-दिशाओं का अन्धकार दूर करे ७ आकाश में साडाबारह करोड देव-दुदुभि बजे ८ भगवन्त के ऊपर तीन छत्र ऊपरा-उपरी विराजे ६ अनन्त ज्ञान अतिशय १० अनन्त अचर्ना अतिशय परम पूज्यपना ११ अनन्त वचन अतिशय १२ अनन्त अपायापगम अतिशय (सर्व दोष रहित परा) एव बारह गुणो सहित । भाव देव -१ भवनपति २ वाणव्यन्तर ३ ज्योतिषी ४ वैमानिक एव चार प्रकार के देव भाव देव कहलाते है। ३ उववाय द्वार १ भविय द्रव्य देव में मनुष्य तिर्यच १, युगलिये २, और सर्वार्थ सिद्ध ३ एवं तीन स्थान छोड कर शेष सर्व स्थानों के आकर उत्पन्न होते है २ नरदेव मे चार जाति के देव और पहली नरक एवं पांच स्थान के आकर उत्पन्न होते है ३ धर्म देव मे छ्टी सातवी नरक, तेउ, वायु, मनुष्य तिर्यच व युगलिये एव छ स्थान के छोड कर शेष सर्व स्थान के आकर उत्पन्न होते है ४ देवाधिदेव में पहली, दूसरी, तीसरी नरक और किल्विषी छोड कर वैमानिक देव के आकर उपजते है ५ भाव देव मे तिर्यच, पचेन्द्रिय और सज्ञी मनुष्य इन दो स्थान के आकर उत्पन्न होते है। ४ स्थिति द्वार १ भवि द्रव्य देवकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट तीन पल्य की । २ नर देव की जघन्य सातसौ वर्ष की उत्कृष्ट चौरासी लक्ष पूर्व की ३ धर्मदेव की जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट देश उणी (न्यून) पूर्व क्रोड को ४ देवाधिदेव की जघन्य ७२ वर्ष की उत्कृष्ट ८४ लक्ष पूर्व की ५ भावदेव की जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की।
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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