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________________ पर्याप्ता अपर्याप्ता द्वार ३५१ हो जाना बतलाते है। गुप्त भेद गीतार्थ गुरु गम्य है। ऐसे जीव जितने समय तक मार्ग मे रोक जाते है उतने समय तक अनाहारक ( आहार के बिना ) कह लाते है। ये जीव वान्धी हुई योनि के स्थान मे प्रवेश करके उत्पन्न होवे ( वास करे ) उसी समय वह योनि स्थान कि जो पुद्गल के बान्धारण से वन्धा हुवा होता है -उसी पुद्गल का आहार-कढाई मे डाले हुए बडे ( भुजिये ) के समान आहार करते है। उसका नाम-ओज आहार किया हुवा कहलाता है । और सारे जीवन मे एक ही वार किया जाता है । इस आहार को खेच कर पचाने मे एक अन्तर्मुहूर्त का समय लगता है। यह पहली आहार प्राप्ति कहलाती है। ( १ ) इस प्रकार इस आहार के रस का ऐसा गुण है कि उसके रज कण एकत्रित होने से सात धातु रूप स्थूल शरीर की आकृति बनती है। और ये मूल धातु जीवन पर्यन्त स्थूल शरीर को टिका रखते है । ऐसे शरीर रूप फूल मे सुगन्ध की तरह जीव रह सकते है । यह दूसरी शरीर पर्याप्ति कहलाती है इस आकृति को बान्धने में एक अन्तर्मुहूर्त लगता है ( २ ) इस शरीर के दृढ बन जाने पर उसमे इन्द्रियो के अवयव प्रगट होते है। ऐसा होने मे अन्तर्मुहूर्त का समय लगता है यह तीसरी इन्द्रिय पर्याप्ति कहलाती है । ( ३ ) उक्त शरीर तथा इन्द्रिय दृढ होने पर सूक्ष्म रूप से एक अन्तर्मुहूर्त मे पवन की धमण शुरू होती है यही से उस जीव के आयुष्य की गणना की जाती है यह चौथी श्वासोश्वास पर्याप्ति कहलाती है (४) पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त मे नाद पैदा होता है । यह पाँचवी भाषा पर्याप्ति कहलाती है ( १) उपरोक्त पांच पर्याप्ति के समय पर्यन्त मन चक्र की मजबूती होती है। उनमे से मन स्फुरण हो कर सुगन्ध की तरह बाहर आता है उसमे से शरीर की स्थिति के प्रमाण मे सूक्ष्म रीति से अमुक पदार्थो के रज कण आकर्षित करने योग्य शक्ति प्राप्त होती है । यह छट्ठी मन. पर्याप्ति कहलाती है ( ६ ) उक्त रीति से ६,
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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