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________________ अपर्याप्ता तथा पर्याप्ता द्वार शिष्य-(विनय पूर्वक नमस्कार करके पूछता है ) हे गुरु ! जीवतत्व का बोध देते समय आपने कहा कि जीव उत्पन्न होते समय अपर्याप्ता तथा पर्याप्ता कहलाता है । सो यह कैसे ? कृपा करके मुझे यह समझाइये । ___ गुरु-हे शिष्य ! जीव यह राजा है। आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोश्वास, भाषा और मन ये ६ प्रजा है और ये चारो गति के जीवो को लागू रहने से ५६३ भेद माने जाते है। इनमें पहली आहार पर्याप्ति लागू होती है। यह इस प्रकार से है कि जब जीव का आयुष्य पूर्ण होवे तब वह शरीर छोड़ कर नई गति की योनि मे उत्पन्न होने को जाता है । इसमे अविग्रह गति अर्थात् सीधी व सरल बान्ध कर आया हुआ होवे वह जीव जिस समय आया हुआ होवे उसी समय में आकर उत्पन्न होता है उस जीव को आहार का अन्तर पड़ता नही इस प्रकार का बन्धन वाला जीव "सीए आहारिए" अर्थात् सदा आहारिक कहलाता है । ऐसा भगवतो सूत्र का न्याय है। अब दूसरा प्रकार विग्रहगति का बान्ध कर आने वाले जीवो का कहा जाता है। इसमे तीन प्रकार-कितनेक जीव शरीर छोडने के वाद एक समय के अन्तर से, कितनेक दो समय के अन्तर से, और कितनेक तोन समय के अन्तर से, अर्थात् चौथे समय मे उत्पन्न हो सकते है । एव चार ही प्रकार से संसारी जीव उत्पन्न हो सकते है । यह दूसरी विग्रह अर्थात् विषम गति करके उत्पन्न होने वाले जीवों को एक दो, तीन समय उत्पन्न होते अन्तर पड़े, इसका कारण ग्रंथकार आकाश प्रदेश की श्रेणी का विभागो की तरफ आकर्षित ३५०
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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