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________________ १४ जैनागम स्तोक संग्रह बुरे कर्म को अकेला ही भोगेगा जिनके लिए पाप कर्म किए; वे भोगते समय कोई साथ नही देगे, इस प्रकार सोचे । ४५ अन्यत्व भावना इस जीव से शरीर पुत्र कलत्रादि धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद आदि सर्व परिग्रह अन्य है, ये मेरे नही, मै इनका नही, ऐसा सोचे । ४६ अशुचि भावना यह शरीर सात धातुमय है व जिसमे से मल-मूत्र - श्लेष्मादि सदैव निकलता है, स्नान आदि से शुद्ध बनता नही, ऐसा विचार करे । ४७ आश्रव भावना ये सारी जीव मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, प्रमादादि आश्रव द्वारा निरन्तर नए नए कर्म बाध रहे है, ऐसा सोचे । ४८ संवर भावना : व्रत, संवर, साधु के पंच महाव्रत, श्रावक के बाहरव्रत, सामायिक पौषधोपवास आदि करने से जोव नये कर्म नही बांधता, किंवा पूर्व कर्मो को पतले करता है; ऐसा करने के लिये विचार करे । ४६ निर्जरा भावना : चार प्रकार की तपस्या करने से निविड़ कर्म टूट कर दीर्घ ससार पार होता है, व अनेक लब्धिये भी प्राप्त होती है । ऐसा समझ कर तपस्या करने का विचार करे । ५० लोक भावना : चौदह रज्जु प्रमाण जो लोक है उसका विचार करे । ५१ बोध भावना : राज्य, देव, पदवी, ऋद्धि, कल्पद्रुमादि ये सर्व सुलभ है, अनन्त
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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