SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पांच इन्द्रिय श्री प्रज्ञापना सूत्र के पन्द्रहवे पद के प्रथम उद्देशो में पाँच इन्द्रिय का विस्तार ११ द्वार के साथ कहा है । गाथा : १ संठाण १ बाहुल्लं २ पोहत्तं ३ कइपएस ४ उगाढे ५ । अप्पबहु ६ पुठ ७ पविठे - विसय ६ अणगार १० आहारे ११ ॥ पांच इन्द्रिय १ श्रोत्रेन्द्रिय २ चक्षु इन्द्रिय, ३ घ्राणेन्द्रिय, ४ रसनेन्द्रिय, ५ स्पर्शेन्द्रिय । १ संस्थान द्वार १ श्रोत्रेन्द्रिय का संस्थान (आकार) कदम्ब वृक्ष के फूल समान, २ चक्षु इन्द्रिय का संस्थान मसूर की दाल समान, ३ घ्राणेन्द्रिय का संस्थान धमण समान, ४ रसनेन्द्रिय का सस्थान छरपला की धार समान, ५ स्पर्शेन्द्रिय का संस्थान नाना प्रकार का । २ बाहुल्य ( जाड़पना) द्वार पाँच इन्द्रिय का बाहुल्य जघन्य उत्कृष्ट आंगुल के असख्यातवे भाग का । ३ पृथुत्व ( लम्वाई) द्वार १ श्रोत्र, २ चक्षु और ३ घ्राण । इन तीन इन्द्रियों की लम्बाई जघन्य उत्कृष्ट आंगुल के असख्यातवे भाग की । ४ रसनेन्द्रिय की २५६
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy